--के• विक्रम राव
अध्यक्ष - इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स।
आखिर वही हुआ जिसकी सोनिया गांधी को आशंका थी, भले ही कांग्रेस पार्टी को अपेक्षा थी। प्रियंका रॉबर्ट वाड्रा राजनीति में आ गईं। कितना गुणात्मक फर्क है भाई-बहन की लोकसभाई भूमिका में। दो दशकों से राहुल गांधी अपने को प्रतीक्षारत पीएम समझते रहे हैं। मानों RAC में हों। अटल बिहारी वाजपेई के सत्ता से पतन के बाद से (2002) राहुल आस संजोये जमे हैं। मगर बहन ने दिखा दिया वह अधिक उत्कृष्ट हैं, श्रेष्ठ है, राजनीति में।
पुत्रमोह के चलते सोनिया ने दशकों से बेटी को दबाये रखा। टट्टू को घोड़ा मानकर रेस में दौड़ाती रहीं।
हालांकि सियासत में प्रियंका राबर्ट वाड्रा को अभी कई पापड़ बेलने होंगे। नासमझी से बचना होगा। लोकसभा में मोदी सरकार पर हमला बोलते वक्त उन्होंने हिमाचल में कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री (सुखविंदर सिंह सुक्खू) को भी लपेट लिया। वे बोली : "हिमाचल के सेव उत्पादक भी अन्याय का सामना कर रहे हैं।" अब मोदी से सुक्खू से क्या नाता-वाता?
सोनिया गांधी ने "बेटी बचाओ, बेटी बढ़ाओ" का सिद्धांत नहीं माना था। इसीलिए राहुल के मुकाबले प्रियंका को पीछे दबा के रखी रहीं। प्रियंका भी लचर स्टेप्नी (अतिरिक्त पहिया) जैसी बनी रहीं।
अब चाहे जितना लल्लू-जगधर वह क्यों न हों भला मां तो अपने बेटे को लस्टम पस्टम पीएम देखना ही चाहती है।
वर्षों से राजनेताओं का आकलन रहा कि भाई से कहीं अधिक बहन तेज है। लोग उसमें उसकी दादी का प्रतिबिंब देखते हैं। यूं अपने प्रधानमंत्री-पिता के बारे में तो प्रियंका मौन रहीं। बोलती भी क्या उस बोफोर्स के हीरो के बारे में? अब सरकारी पक्ष को सतर्क रहना होगा यदि कहीं भाई की जगह बहन ही पार्टी नेतृत्व संभालती हैं। यही प्रश्न था राजीव और राहुल के बीच। राहुल राजनीति में फिट, माकूल बैठा। राजीव को मां ने पाइलैट बनाया। वह राजनीति में बाद में आ गया। पार्टी हार गई। सत्ता से बाहर हो गए। केवल अपनी कुर्बानी से राजीव ने चुनावी हालत सुधरी। ठीक जैसे उनके छोटे भाई संजय गांधी राजनीति में फिट थे, मगर जहाज चलाया, जान गवां दी।
इस पृष्ठभूमि में प्रियंका कई प्लस पॉइंट लेकर आई हैं। जैसे लोहिया ने इंदिरा गांधी के पीएम बनने पर कहा था : "अखबार में अब हसीन तस्वीर छपेगी।" राहुल भी सच बोले। "मेरी बहन मुझसे अच्छा बोली।"
मगर राहुल अब करेंगे क्या? अपनी राष्ट्रव्यापी मुहब्बत की दुकान में बिक्री बढ़ाने की कोशिश करेंगे?
इस प्रश्न का उत्तर सक्षम ज्योतिषी पर निर्भर करता है। क्या नेहरू वंश से अभी और प्रधानमंत्री आएगा? क्योंकि सोनिया गांधी बन नहीं पाई थी जबकि उनके आज्ञाकारी रहे नौवें राष्ट्रपति केआर नारायण ने 2002 में सोनिया को प्रधानमंत्री बनवा ही दिया था। अतः एक प्रश्न फिर उठेगा कि विदेशी मूल का व्यक्ति इस महान पद पर रह सकता है? उदाहरण के तौर पर (1949 में) इंदौर की महारानी विदेशी महिला के पुत्र को होलकर नरेश बनाने का प्रयास था। जवाहरलाल नेहरू भी विदेशी मूल के व्यक्ति को भारत में शासक बनाने के पक्ष में नहीं थे। इंदौर के महाराजा यशवंतराव होलकर की विदेशी मूल की पत्नी से जन्में रिचर्ड को इंदौर की राजगद्दी का उत्तराधिकारी बनाने की मान्यता देने से नेहरू सरकार ने अस्वीकार कर दिया था। राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद तथा उपप्रधानमंत्री वल्लभभाई पटेल की भी नेहरू जैसी राय थी। रिचर्ड और राहुल में क्या विषमता है?
वह दिन बड़ा भाग्यहीन होगा यदि विदेशी मूल का व्यक्ति भारत का प्रधानमंत्री बन जाए।