लोहिया के सपने को पूरा किया भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर ने!



--के• विक्रम राव
अध्यक्ष - इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स।

तीन निखालिस सोशलिस्टों, मुलायम सिंह यादव, जॉर्ज फर्नांडिस और अब कर्पूरी ठाकुर, को पद्म पुरस्कार से नवाज कर भाजपाई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी विशाल और उदार-हृदयता का परिचय दिया है। वर्ना आम सियासतदां के लिए यह लोहियावादी तो हमेशा अस्पृश्य ही रहे। कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न दिया जाना गैरमामूली निर्णय है।

हम मीडिया-कर्मियों के लिए कर्पूरी ठाकुर ईमानदारी के प्रतिमान रहे। उन्हें कभी भी किसी पत्रकार से गिला शिकवा नहीं रहा। पटना में “हिंदुस्तान टाइम्स” के संपादक रहे सुभाषचंद्र सरकार कर्पूरी जी के कट्टर आलोचक रहे। उनके खिलाफ में खूब लिखा। बढ़कर, जमकर। पर जब कर्पूरी जी से वे मिले तो बोले : “कैसा व्यक्ति है? लेशमात्र भी नाराज नहीं।” यह बात पत्रकार सुरेंद्र किशोर ने मुझे बताई। सुरेंद्र किशोर मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के निजी सचिव रहे। हमारे बडौदा डायनामाइट केस में हमारे वे पटना के संपर्क सूत्र थे।

कर्पूरी जी विशेष क्यों हैं? यूपी के सोशलिस्ट हमेशा नारा लगाते थे : “जिन जोतों पर लाभ नहीं, उन पर लगे लगान नहीं।” समाजवादी तो सरकार में कई बार आए। सीमांत किसानों को कोई राहत नहीं मिली। कर्पूरी ठाकुर ने सत्ता पर आते ही मालगुजारी खत्म कर दी। इसे माल गुजारी के रूप में हिंदुस्तानी जमींदारी बिचौलियों के मार्फत ब्रिटिश गवर्नर जनरल लॉर्ड चार्ल्स कार्नवालिस ने (12 सितंबर 1786) गुलाम देश पर थोपा था। कर्पूरी ठाकुर ने बिहार में उसका अंत कर दिया। उत्तर प्रदेश के सोशलिस्ट सत्याग्रही नारे बुलंद करते रहे : “अंग्रेज यहां से चले गए, अंग्रेजी हमें हटानी है।” स्वयं मैं भी लखनऊ विश्वविद्यालय में “अंग्रेजी हटाओ” आंदोलन में सक्रिय रहा। पर अभी भी यूपी में अंग्रेजी पनप रही है।

जब बिहार में कर्पूरी ठाकुर गैर-कांग्रेसी काबीना में शिक्षा मंत्री बने थे तो उनका पहला कदम था कि मैट्रिक परीक्षा पास करने के लिए अंग्रेजी में पास होना अनिवार्य नहीं होगा। इससे उन लाखों छात्रों को लाभ हुआ जो उच्च शिक्षा से वंचित रह जाते थे। इसके अलावा युवतियां भी तब से हाई स्कूल पास कर बीए तक पढ़ लेती थीं। ग्रेजुएट बहु चाहने वालों के लिए सुगम हो गया था।

आज के अमीर मुख्यमंत्रियों के लाट साहबी अंदाज को देखकर कर्पूरी ठाकुर के मुख्यमंत्री काल की याद आती है। एक बार बिहार के मुख्यमंत्री रहे सत्येंद्र बाबू की कार में उनका सहायक पिछली सीट पर बैठ गया। सीएम ने उसे डांट कर उठा दिया कहा : “क्या कर्पूरी ठाकुर की बस समझ रखा है। जाकर ड्राइवर के साथ बैठो।” कारण यह था कि कर्पूरी ठाकुर के साथ सरकारी मोटर में लोग ठूंस कर बैठते थे। मानो बस की सवारी कर रहे हों।

कर्पूरी ठाकुर की सरलता का अंदाज एक घटना से लग जाता है। यह किस्सा मुझे साथी जॉर्ज फर्नांडिस ने बताया था। तब बिहार में सरकार बनाने की बात थी। पार्टी अध्यक्ष जॉर्ज फर्नांडिस पटना गए थे। निर्णय करना था। दो प्रत्याशी थे। पंडित रामानंद तिवारी, बड़े दावेदार और सवर्ण। उधर कर्पूरी ठाकुर भी थे। जॉर्ज ने अपने प्रखर विवेक तथा सियासी समझ का उपयोग किया। कर्पूरी ठाकुर को मनोनीत कर दिया। पार्टी का जनाधार बड़ा व्यापक हो गया। समाजवादी जड़े गहरी हो गईं। पर दुर्भाग्य था कि इस जातीय समीकरण का मुनाफा चारा चोर लालू यादव ने भरपूर उठाया। संपन्न ग्वालों के जातीय आधार पर लालू ने दांव चला। पिछड़ों की बात चलाई। हालांकि लालू हमेशा धनी और सरमायेदार थे। मुख्यमंत्री बनकर तो यह गरीब गोपालक अरबपति बन बैठा। आज कई भ्रष्टाचार के मुकदमों में जेल के बाहर-भीतर आता जाता रहता है।

जब गैरजाटव दलित और गैरयादव पिछड़ा राजपदों को कब्जियाते रहे, तब अति पिछड़ी जाति के कर्पूरी ठाकुर का मंत्री और मुख्यमंत्री बनना बड़ा सुखद लगता रहा। अब उसी वंचित नेता को सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार भारत रत्न मिलने से परम हर्ष हुआ। खुद उनके दोनों चेलों नीतीश कुमार और लालू यादव को भी बाहरी तौर पर। हालांकि इन दोनों को फायदा हुआ था उस नारे से कि “सोशलिस्टों ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ।

कर्पूरी ठाकुर के साथ मेरी कई व्यक्तिगत यादें भी रही। वह दौर था इमरजेंसी वाला (1975-77) का। लाखों सियासी विरोधियों को इंदिरा गांधी ने जेल में डाल दिया था। उस दौर में कई राज्यों की पुलिस कर्पूरी ठाकुर के पीछे पड़ी थी। पर उनकी छाया भी नहीं पकड़ पाई। तब गुजरात में जनता पार्टी के बाबूभाई पटेल की सरकार थी। इमरजेंसी कानून लागू नहीं था। मीसा के तहत गिरफ्तारी भी नहीं होती थी। हम आजाद थे। मैं भी बाद में जेल में दाल दिया गया।

विरोधी मोर्चा की तरफ से तब मेरा काम था अपने “टाइम्स ऑफ इंडिया” संवाददाता वाली मोटर कार में दक्षिण गुजरात के सूरत शहर-महाराष्ट्र की सीमा तक जाना और कांग्रेस-शासित राज्य से भूमिगत राजनेताओं को लेकर राजधानी गांधी नगर पहुंचाना था। एक बार कर्पूरी जी से सामना हुआ। मगर उनकी वेशभूषा से पहचानने में देरी लगी। मैं उन्हें पटना से पहचानता था। पर अब उनकी हुलिया बदल गई थी। बाद में पुलिसिया कड़ाई बढ़ जाने से वे नेपाल में छिप गए थे। मगर इंदिरा गांधी की रायबरेली पराजय तक पुलिस उन्हें पकड़ न सकी। फिर सरकारी पुलिस से बचने वाले इस राजनेता की सरकार बनी। पटना आया। ऐसे इंकलाबी सोशलिस्ट कामरेड को उनके भारत रत्न पाने पर मेरा लाल सलाम। फिर नरेंद्र मोदी को भी उनकी पारखी दृष्टि के लिए हार्दिक बधाई।

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