--राजीव रंजन नाग
नई दिल्ली, इंडिया इनसाइड न्यूज।
जस्टिस चंद्रचूड़ से देश को काफ़ी उम्मीदें थी लेकिन रिटायर होते होते वो सबसे बड़ी निराशा में तब्दील हो गये? ऐसा क्यों हुआ और कैसे हुआ? क्या वो सरकार के दबाव में आ गये? क्या वो पहले भारत के पहले मुख्य न्याधीश थे जो मीडिया को मनमुताबिक इस्तेमाल कर पाये और फिर उसी के शिकार हो गये?
अयोध्या राम जन्मभूमि मामले में फैसला सुनाने वाली सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ के आखिरी जज डीवाई चंद्रचूड़ 10 नवंबर 2024 को रिटायर्ड हो रहे हैं। वे शेष बचे दिनों में कई अहम फैसले सुनाने वाले हैं। 8 नवंबर उनका अंतिम कार्य दिवस होगा। इन प्रमुख मामलों पर पूरे देश की नजर रहेगी।
जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने हाल में एक साक्षतकार में कहा- कि न्यायपालिका की आजादी का मतलब यह नहीं है कि हमेशा सरकार के खिलाफ फैसले दिए जाएं। इंडियन एक्सप्रेस के कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि कुछ दबाव समूह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का इस्तेमाल करके अदालतों पर दबाव बनाकर अपने पक्ष में फैसला लेने की कोशिश करते हैं। न्यायपालिका की आजादी का मतलब आज भी सरकार से आजादी है। लेकिन न्यायिक स्वतंत्रता के लिहाज से सिर्फ यही एक चीज नहीं है।
वह कहते हैं ‘हमारा समाज बदल गया है। खासकर सोशल मीडिया के आगमन के साथ आप हित समूहों, दबाव समूहों और उन समूहों को देखते हैं, जो अनुकूल निर्णय लेने के लिए अदालतों पर दबाव बनाने के लिए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का उपयोग करने की कोशिश कर रहे हैं।’
इनमें से कई दबाव समूह न्यायपालिका को तभी स्वतंत्र मानते हैं, जब जज उनके पक्ष में फैसला सुनाते हैं। उन्होंने कहा, ‘अगर आप मेरे पक्ष में फैसला नहीं देते हैं तो आप स्वतंत्र नहीं हैं। स्वतंत्र होने के लिए एक जज के पास यह तय करने की आजादी होनी चाहिए कि उनका विवेक उन्हें क्या करने के लिए कहता है। बेशक विवेक जो कानून और संविधान द्वारा निर्देशित हो।’ सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा कि उन्हें तब स्वतंत्र कहा गया जब उन्होंने सरकार के खिलाफ फैसला सुनाया और इलेक्टोरल बॉन्ड को रद्द कर दिया। लेकिन अगर कोई फैसला सरकार के पक्ष में जाता है, तो आप स्वतंत्र नहीं होते। आजादी की मेरी परिभाषा यह नहीं है। चंद्रचूड़़ ने कहा कि गणपति पूजा पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उनके आधिकारिक आवास पर आने में कुछ भी गलत नहीं था और ऐसे मुद्दों पर राजनीतिक हल्कों में परिपक्वता की भावना की जरूरत है। प्रधानमंत्री के सीजेआई के घर जाने के औचित्य और न्यायपालिका व कार्यपालिका की सीमाओं पर कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी दलों और वकीलों के एक वर्ग ने सवाल उठाए थे। दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने आलोचनाओं को दरकिनार करते हुए कहा था कि यह देश की संस्कृति का हिस्सा है।
अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में भारी नाराजगी और आलोचना का सामना कर रहे जस्टिस चंद्रचूड़ के हालिया आचरण और उनके फैसलों को लेकर सुप्रीम कोर्ट बार एसोसियेशन (एससीबीए) के अध्यश्र रहे सीनिर वकील दुष्यंत दवे ने ‘द वायर” के लिए करण थापर को दिए गए अपने बयान में कहा। भारत के एक अग्रणी वकील ने भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में अपने आखिरी सप्ताह की शुरुआत में मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ पर एक गंभीर आरोप लगाते हुए कहा: "मुझे उम्मीद है कि इतिहास मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ को याद नहीं रखेगा और मुझे उम्मीद है कि उनकी विरासत को जल्द से जल्द भुला दिया जाएगा"।
यह पूछे जाने पर कि क्या वह कह रहे हैं कि मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ को भुला दिया जाना चाहिए, दुष्यंत दवे ने जवाब दिया "हां, बिल्कुल"। भारत के मुख्य न्यायाधीश के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट के प्रशासनिक प्रमुख के रूप में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के प्रदर्शन का आकलन करने के लिए, दुष्यंत दवे ने कहा: "उन्होंने बहुत निराश किया है ... मेरी उम्मीदें गंभीर रूप से झूठी साबित हुई हैं।" श्री दवे ने कहा कि जब कानून का शासन और लोकतंत्र खतरे में है, तो “मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ न केवल विफल हुए बल्कि उन्होंने सफल होने का प्रयास भी नहीं किया।”
चंद्रचूड़ के भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्यभार संभालने से कुछ हफ़्ते पहले दवे ने कहा था: “राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामलों में वे उस स्तर तक नहीं पहुँच पाए हैं जिसकी उनसे अपेक्षा की जाती थी।” अब जब उनसे पूछा गया कि क्या मुख्य न्यायाधीश के रूप में भी ऐसा ही हुआ है, तो श्री दवे ने कहा: “निश्चित रूप से हाँ”। उन्होंने कहा कि मुख्य न्यायाधीश के रूप में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने “2014 से सत्ता में रहने वाली पार्टी की चापलूसी की”। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ द्वारा नहीं लिए गए मामलों के बारे में बात करते समय श्री दवे विशेष रूप से तीखे और मुखर रूप से आलोचनात्मक थे।
उन्होंने कहा कि “वे अदालत के बाहर बहुत कुछ बोलते हैं” लेकिन उनके कार्य कमतर होते हैं। दवे कहते हैं “ऐसे कई मामले हैं जहाँ उन्होंने जानबूझकर टालमटोल की है” और कहा कि “उनमें हिम्मत नहीं थी” कि वे इन मामलों को लें। इन मामलों में नागरिकता संशोधन अधिनियम, हिजाब मामला और कई लव जिहाद मुद्दे शामिल हैं। श्री दवे ने कहा कि न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ पर इस बात की "बड़ी जिम्मेदारी" है कि उमर खालिद और शरजील इमाम जैसे लोग और भीमा कोरेगांव के कई आरोपी बिना जमानत के सालों से जेल में बंद हैं।
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ द्वारा सरकार द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति के बारे में कॉलेजियम मामले को न्यायमूर्ति संजय कौल से छीनने के फैसले के बारे में बोलते हुए, श्री दवे ने कहा कि यह "वास्तव में न्यायालय की अवमानना के बराबर है"। उन्होंने कहा कि न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने "सरकार को शर्मिंदगी से बचाने के लिए" ऐसा किया। "यह शर्मनाक है।" यह स्पष्ट रूप से "कर्तव्य की उपेक्षा" और "न्यायिक शक्ति के हर सिद्धांत के खिलाफ" है।
अनुच्छेद 370 के फैसले के बारे में बोलते हुए, श्री दवे ने कहा कि न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाले पांच न्यायाधीशों ने "कानून में खुद को गलत दिशा दी" और इसका परिणाम "न्याय का गंभीर गर्भपात" था। उन्होंने कहा कि "फैसला गलत है"। चुनावी बॉन्ड के बारे में फैसले के बारे में बोलते हुए, जिसमें बॉन्ड को असंवैधानिक घोषित किया गया था और रद्द कर दिया गया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने पैसे वापस लेने या किसी को दंडित करने से परहेज किया। श्री दवे ने स्पष्ट रूप से सुझाव दिया कि न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ में मामले को आवश्यक तार्किक निष्कर्ष तक ले जाने के लिए “साहस की कमी” थी।
श्री दवे ने कहा- न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ लगातार प्रचार की तलाश में थे। उन्होंने कहा कि मीडिया में उनकी उपस्थिति “प्रधानमंत्री के बाद दूसरे स्थान पर थी”। उन्होंने कहा कि भारत में कभी भी ऐसा कोई न्यायाधीश नहीं हुआ जो “उनके जितना मीडिया के प्रति जागरूक” हो। उन्होंने कहा कि उनका मानना है कि लेडी जस्टिटिया का नया स्वरूप यानी उनकी आंखों की पट्टी हटाना और तलवार को संविधान से बदलना इसलिए किया गया क्योंकि यह मीडिया को पसंद आएगा। साक्षात्कार में उन बातों पर भी चर्चा की गई है जिनका उल्लेख नहीं किया है। जैसे अयोध्या निर्णय, समलैंगिकता, व्यभिचार और सबरीमाला पर न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के पिछले निर्णय और साथ ही एडीएम जबलपुर मामले में अपने पिता के निर्णय की 2017 में उनकी आलोचना, जिसे न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने "गंभीर रूप से त्रुटिपूर्ण" कहा था। श्री दवे ने स्पष्ट रूप से कहा कि इन मामलों में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ शायद इस तथ्य से प्रभावित थे कि ये निर्णय जनता की राय को पसंद आएंगे और इसलिए वे "हवा के साथ चल रहे थे"।