बापू , मुसलमान और गोड्से!



--के• विक्रम राव
अध्यक्ष - इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स।

महात्मा गांधी ने सेक्युलर शब्द न कभी कहा और न कही लिखा। वे चाहते थे कि यदि पुनर्जन्म हुआ तो वे हिन्दू ही हों। अपने को संकोच नहीं होता था। फिर भी मनसा, वाचा, कर्मणा बापू अप्रतिम सेक्युलर थे। अल्पसंख्यक उनपर बेहिचक भरोसा करते थे। मुसलमानों के वे अविचल सुहृद थे क्योंकि उनकी दृष्टि में इस्लाम के ये मतावलम्बी मात्र वोटर नहीं थे। खुद उनकी भांति हिन्दुस्तानी थे।

इसीलिये वेदना होती है, रोष भी, जब चन्द बहके भारतीय अधकचरी जानकारी के बूते विकृत बातें पेश करते हैं। इससे सेक्युलर राष्ट्रवादी का मन खट्टा होना स्वाभाविक है। मसलन कुछ उग्र हिन्दू कहते हैं कि तुर्की के खलीफा का समर्थन कर गांधीजी ने भारत में इस्लामी फिरकापरस्ती को खादपानी दिया, पोषित किया। मगर गत सदी के पूर्वार्ध में खूब चला था। आज यह बेतुका है, राष्ट्रविरोधी भी।

दूसरी तरफ खांटी जिन्नावादी मुस्लिम लीगी हैं जो नारा बुलन्द करते थे पाकिस्तान का और रह गये खण्डित भारत में। आज भी वे बापू के बारे में वही राय रखते हैं जो कभी राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष मौलाना मोहम्मद अली जौहर ने कहा था कि बनिस्बत हिन्दू गांधी के एक मुसलमान उनके ज्यादा अजीज है भले ही वह जारकर्मी पतित क्यों न हो। यह तर्क विकृत है।

आधुनिक संदर्भ में जब हिन्दु-मुस्लिम रिश्तों विषाक्तता बढ़ रही है, यह विश्लेषण करना होगा कि क्या बापू की यह भूल थी कि इस्लामी दुनिया के खलीफ़ा और तुर्की के अपदस्थ सुलतान मोहम्मद चतुर्थ को पुनप्र्रस्थापित करने हेतु खिलाफत आन्दोलन चलाया जाना चाहिए था? इस्तानबुल स्थित ओटोमन खलीफा ने 1774 से रूस से युद्धोपरान्त एक संधि की थी जिससे तुर्की के बाहर बसे मुसलमानों का मजहबी संरक्षक बन गया था। इसके कारण 1880 से भारत के मुसलमानो का भी यह तुर्की सुलतान अब्दुल हामिद द्वितीय खलीफा बन गया था। किन्तु प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी, तुर्की और रूस की ब्रिटेन व अमरीका द्वारा हरा दिये जाने पर तुर्की की सल्तनत खत्म हो गई। अंग्रेजों ने पराजित सुल्तान का खलीफा पद को अमान्य करार दिया। इससे 1920 से 1924 तक भारतीय मुसलमानों ने मौलाना मोहम्मद अली, उनके भाई मौलाना शौकत अली, मौलाना अबुल कलाम आजाद, डा. मुख्तर अहमद अंसारी, बेरिस्टर मोहम्मद जान अब्बासी आदि के नेतृत्व में भारतीय केन्द्रीय खिलाफत समिति बनाई। जिसने खलीफा को पुनः स्थापित करने हेतु आन्दोलन छेड़ा। गांधी जी इस केन्द्रीय समिति के सदस्य बने और मोतीलाल नेहरू ने उनके कदम का खुला समर्थन किया। मगर मोहम्मद अली जिन्ना ने खलीफा को बचाने का कड़ा विरोध किया।

आज (30 जनवरी) बापू की पुण्यतिथि पर नाथूराम विनायक गोड्से की भी याद अनायास आती है। जैसे ग्रहण की बेला पर राहु-केतु। गत चन्द वर्षों से इस जघन्य हत्यारे का महिमामंडन हो रहा है। जिस देश में पंचमी के दिन नाग को दूध पिलाते हों, वहाँ इसमें अचरज नहीं होगा। आखिर कैसा, कौन और क्या था गोड्से?

नाथूराम स्कूल से भागा हुआ छात्र था। नूतन मराठी विद्यालय में मिडिल की परीक्षा में फेल हो जाने पर उसने पढाई बंद कर दी थी। उसका मराठी भाषा का ज्ञान भी अल्प था। अंग्रेजी और इतर भाषाओँ की जानकारी तो शून्य ही थी। जीविका हेतु उसने पढाई छोड़ दी थी। सांगली शहर में दर्जी की दुकान खोल ली थी। उसके पिता विनायक गोड्से डाकखाने में बाबू थे, मासिक आय पांच रूपये थी। नाथूराम अपने पिता का लाडला था क्योंकि उससे पहले जन्मी सारी संतानें मर गई थीं। नाथूराम के बाद और भी पैदा हुए थे, जिनमें था गोपाल, जो नाथूराम के साथ सहअभियुक्त था।

नाथूराम की युवावस्था किसी खास घटना अथवा राष्ट्रवादी, अंग्रेज-विरोधी विचार के लिये नहीं जानी जाती है। स्वाधीनता संग्राम की हलचल से नाथूराम का तनिक भी न रूचि थी, न सरोकार था।

जो लोग अभी भी नाथूराम गोड्से के प्रति थोड़ी बहुत नरमी बरतते हैं, उन्हें इस निष्ठुर, क्रूर हत्यारे के बारे में प्रमाणित तथ्यों पर गौर करना चाहिए : गांधीजी को मारने के दो सप्ताह पूर्व नाथूराम ने अपने जीवन को काफी बड़ी राशि के लिये बीमा कम्पनी से सुरक्षित करा लिया था। जाहिर है उसके मौत के बाद उसके परिवारजन इस बीमा राशि से लाभान्वित होते। (पृष्ठ 18 व 19 : गांधीवध और मैं, लेखक: गोपाल विनायक गोड्से, प्रकाशक: वितस्ता प्रकाशन पुणे: 1982)। ऐतिहासिक मिशन को लेकर चलने वाला व्यक्ति बीमा कम्पनी से क्या ऐसा मुनाफा कमाना चाहेगा?

अब जानिये गोड्से के परम सखा, फाँसी पर लटके नारायण दत्तात्रेय आपटे को। उसने 29 जनवरी की रात दिल्ली के वेश्यालय में गुजारी थी। ताकत बढ़ाने हेतु। आपटे और गोड्से ने जेल के भीतर सुविधाओं की मांग की। हालांकि स्नातक वा पर्याप्त शिक्षित न होने के कारण उसे पंजाब जेल नियम संहिता के अनुसार साधारण कैदी की तरह रखा जाना चाहिये था। देश के हर शहीद ने अंग्रेज जेलों में विशिष्ट सुविधाओं को मांगना तो दूर, उनका तिरस्कार किया था। अपने मृत्युदंड के निर्णय के खिलाफ नाथूराम ने लंदन की प्रिवी काउंसिल में अपील की थी। तब भारत स्वाधीन हो गया था, फिर भी नाथूराम ने ब्रिटेन के हाउस ऑफ़ लार्ड्स की न्यायिक पीठ से सजा-माफ़ी की अभ्यर्थना की थी। अंग्रेज जजों ने उसे अस्वीकार कर दिया था।

हम भारतीय अपनी दोमुहीं, छ्लभरी सोच को तजकर, सीधी, सरल बात करना कब शुरू करेंगे, कि हत्या एक जघन्य अपराध और सिर्फ नृशंस हरकत है। वह भी लुकाटी थामे, एक वृद्ध अधनंगे, श्रृद्धालु हिन्दू की जो राम का अनन्य, आजीवन भक्त रहा।

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