हम अपनी व्यथा कहें तो किससे यारों!



--प्रमोद दूबे
कोलकाता - पश्चिम बंगाल, इंडिया इनसाइड न्यूज।

कोलकाता से प्रकाशित कुछ अखबारों में कुछ ही दिन कार्य करने वाले कतिपय पत्रकार स्वयं को इतना महान मानते हैं कि वर्ष में एक या दो दिन सोशल मीडिया पर कुछ लिख देते हैं। बस उनसे परिचित वाह-वाह करने लगते हैं। इन पत्रकारों में अहंकार है और उसके प्रदर्शन की उत्कट अभिलाषा भी। दो दिन पूर्व इस प्रजाति के एक पत्रकार मिले, उनसे पश्चिम बंगाल में हिंदी भाषी सरकारी स्कूलों पर ध्यान देने का निवेदन किया, तब उन्होंने कहा "फुर्सत कहां है" मैंने कहा, पर तो किसी समाचार पत्र में नहीं हैं? इसपर उनका जवाब था कि आपको हमारे विषय में पता नहीं है। दरअसल वे बनारस के रिक्शा वालों की तरह हैं, जो भूखे सो जाएंगे, पर कम पैसे में आपको रिक्शे पर नहीं बैठाएंगे। मुझे अच्छी तरह से पता है कि इस समय वे आर्थिक संकट में हैं और उन्हें मधुमेह है और इस उम्र में पैसे की सख्त जरूरत है।

उनकी भाषा में अहंकार था, शरीर में प्रदर्शन, रस्सी जल गई पर ऐंठन नहीं गई। मैं उनके साथ किसी समाचार पत्र में कभी काम नहीं किया, पर एक बार कोलकाता के आउटराम घाट पर तीर्थयात्री शिविर के उद्घाटन पर कुछ लोगों से बताया कि वे मुझसे वरिष्ठ हैं। मैंने कोई स्पष्टीकरण नहीं मांगा और इसे उनकी मानसिक बीमारी मानता हूं।

पश्चिम बंगाल में हिंदी भाषी सरकारी स्कूलों का दशा सोचनीय है। नब्बे फीसदी बच्चों और उनके माता-पिता की पहली पसंद अंग्रेजी माध्यम के स्कूल हैं। यह भी अलग बात है कि नब्बे फीसदी अंग्रेजी स्कूलों में गुणवत्ता युक्त शिक्षा नहीं दी जाती है, अलबत्ता वहां बाजार जरूर लगता है और अच्छे अभिभावक भी स्कूल द्वारा बेची जा रही वस्तुएं बड़े प्रेम से खरीदता है। इस बीच कुछ अभिभावकों ने शिकायत की है कि नामांकन के लिए आवश्यक कागजातों के नाम पर उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा है।

अभिभावकों का एक धड़ा सरकार से हिंदी माध्यम के सरकारी स्कूलों के बच्चों की डायरी, गृहकार्य निष्पक्ष तरीके से जांच करने की मांग की है। अभिभावकों का कहना है कि यहां गुणवत्ता युक्त शिक्षा नहीं दी जा रही है। बच्चों की अभ्यास पुस्तिका की जांच कर पता करना चाहिए कि उन्हें मौजूदा सत्र में कितने दिनों पढ़ाया-लिखाया गया है?

हिंदी और हिंदी माध्यम के स्कूलों को समय के अनुरूप परिवर्तित न करने से अभिभावकों का हिंदी माध्यम के स्कूलों से मोहभंग हुआ है। हिंदी माध्यम के सरकारी स्कूलों के प्रति अभिभावकों की रूचि जगाने के लिए जो कोई उपक्रम नहीं दिख रहा है। बड़े बड़े पद और उसके अहंकार में डूबे पदाधिकारियों को बस अपने निज स्वार्थ सिद्धि से ही सरोकार है।

हम अपने मन की व्यथा कहें तो किससे?

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