--अभिजीत पाण्डेय,
पटना - बिहार, इंडिया इनसाइड न्यूज।
हसरत जी की सादादिली हर कड़वे से कुछ बेहद मीठा निकाल सकती थी। बस कंडक्टरी और फैक्ट्री में मजदूरी करने से लेकर आरके बैनर के तले आने तक का हसरत जयपुरी का सफ़र खासा दिलचस्प है। कला के क्षेत्र में विरासत मिलना बहुत आम है लेकिन, बड़े कलाकार वही बन पाते हैं जो विरासत को सजाने-संवारने में ठीक वैसी ही मशक्कत करते हैं जैसे कोई नया शागिर्द करे। यह बात गीतकार हसरत जयपुरी के लिए भी कही जा सकती है।
जयपुर में 15 अप्रैल, 1918 को जन्मे इकबाल हुसैन उर्फ़ हसरत जयपुरी को शायरी विरासत में मिली थी। उनके नाना फ़िदा हुसैन फ़िदा मशहूर शायर थे। लेकिन शेरो-शायरी को अपनी महबूबा की तरह अपने साथ टिकाये रखने के लिए हसरत को जो जद्दोजहद करनी पड़ी वह हर एक के लिए मुमकिन न थी। यह अलग बात है कि शायरी तो उनके जीवन में टिकी रही पर महबूबा या महबूबाएं नहीं।
वह 1940 का दौर था। कई अन्य महत्वपूर्ण गीतकारों, संगीतकारों और फिल्मकारों की तरह हसरत जयपुरी का भी आगमन फिल्म जगत में हुआ था। ‘बरसात’ फिल्म के बाद का वह कालखंड हसरत जयपुरी की जिंदगी का स्वर्णिम काल था जब उन्होंने ‘आह’, ‘अराउंड द वर्ल्ड’, ‘श्री 420’ और ‘मेरा नाम जोकर’ के गीतों से धूम मचा दी थी।
अहसानमंदी और गैरतमंदी हसरत जयपुरी के व्यक्तित्व के दो सबसे मजबूत पक्ष थे। वे राज कपूर से लेकर अपने जयपुर के बालपन के मित्रों तक के ताउम्र आभारी रहे। राजकपूर ने उन्हें फिल्मों में पहला ब्रेक दिया था तो बाकी दोस्तों ने इससे पहले उनके गुरबत के दिनों में मुंबई आने के किराए से लेकर जूते-चप्पल और कपड़ों तक की व्यवस्था की थी। और इस अहसान को उन्होंने एक फ़िल्मी सिचुएशन में ही सही, पर क्या खूब अदा किया -‘अहसान मेरे दिल पे तुम्हारा है दोस्तो...’ उनके गैरतमंद होने की बात को कुछ यूं समझा जा सकता है कि राज कपूर की मृत्यु के बाद उनके लिए 5000 रुपये का वजीफा तय किया गया था लेकिन, इसे लेने का उनका मन नहीं हुआ तो नहीं हुआ।
जयपुर से मुंबई आने के बाद के आठ साल तक चले बस कंडक्टरी के सफ़र को हसरत बड़े ही दिलचस्प ढंग से और मोह से भरकर लगभग हर इंटरव्यू में याद करते थे। इसकी भी एक खास वजह थी। हसरत जयपुरी खूबसूरत चेहरों के कायल थे और हसीन शक्लों के दीदार के लिए बस से बेहतर जगह और कौन सी हो सकती थी। इनमें वे अपनी जयपुर में छूट चुकी खूबसूरत प्रेमिका राधा के अक्स तलाशते फिरते। यहां उनके भीतर के शायर को भरपूर खाद-पानी मिलता रहता। वे दिन भर बस में कंडक्टरी करते और रातों को जागकर उन हसीन चेहरों की याद में गजलें लिखते। सबसे दिलचस्प बात यह कि बस में चढ़ने वाली खूबसूरत सवारियों से उन्होंने कभी किराया नहीं लिया। शायद इसलिए कि उन शक्लों को देखकर उपजने वाले गीत अमूल्य हुआ करते थे।
फिल्म गीतकार होने से बहुत पहले हसरत एक मुकम्मल शायर थे। और उनकी यही खूबी उनको प्रतिष्ठित आर के बैनर में शामिल करने का सबब बनी। पृथ्वीराज कपूर ने किसी मुशायरे में उन्हें अपनी कविता ‘मजदूर की लाश’ पढ़ते सुन लिया था। इसे उन्होंने अपने साथ फुटपाथ पर रात बिताने वाले मित्र की मृत्यु पर लिखा था। उन्होंने ही राज कपूर को मशविरा दिया कि हसरत बहुत अच्छा गीत लिखते हैं और वे चाहें तो उन्हें आर के बैनर में शामिल कर सकते हैं। इसके बाद राज कपूर ने उनकी शायरी सुनी। फिर उस लोकगीत पर आधारित धुन शंकर जयकिशन के माध्यम से उन्हें सुनवाई जिसके बोल थे - "अमुवा का पेड़ है, वही मुंडेर है. आजा मोरे बालमा तेरा इंतजार है" धुन में बंध लिखने की हसरत जयपुरी की यात्रा यहीं से शुरू हुई। इसी तर्ज पर उनका पहला गीत तैयार हुआ - "जिया बेकरार है, छाई बहार है, आजा मोरे बालमा तेरा इंतजार है"।
हसरत के लिए फिल्मों में गीत लिखने की यह शुरुआत थी लेकिन गीत-गजल वे इससे पहले भी लिख रहे थे। इन सब में प्रेम के अलग-अलग रंगों को अलग अंदाज में पिरोया गया था। उनके ये सारे गीत-गजल गायकों की पहली पसंद तो बने ही बने फिल्मों में भी उनका प्रयोग धड़ल्ले से होता रहा - ‘ऐ मेरी जाने गजल, चल मेरे साथ ही चल’, ‘जब प्यार नहीं है तो भुला क्यों नहीं देते’, ‘हम रातों को उठ-उठ के जिनके लिए रोते हैं’ और ‘नजर मुझसे मिलाती हो तो तुम शरमा सी जाती हो’, जैसे खूब प्रसिद्ध हुए गीत-गजल इसका पुख्ता उदाहरण हैं।
खुद उन्होंने भी पहले से अपनी लिखी कविताओं और गीतों का प्रयोग फिल्मों में खूब किया। मुंबई आने से पहले की अपनी कथित प्रेमिका ‘राधा’ के लिए लिखा पहला प्रेम पत्र - ‘ये मेरा प्रेमपत्र पढ़कर…’ जहां संगम फिल्म की जान बना, वहीं तबके नौजवानों के लिए उनके प्रेम का मेनिफेस्टो जैसा कुछ भी। बात यहीं ख़त्म नहीं हुई। इसी फिल्म के दूसरे गाने 'मेरे मन की गंगा और तेरे मन की जमुना का...’ में बाकायदा उस पूरे परिदृश्य और नाम ‘राधा’ का भी इस्तेमाल गया। इन गीतों को सुनें तो ऐसा लगता है मानो हसरत ने अपनी जिंदगी के हर क्षण को करीने से संजोकर रखा था और जब भी मौका मिला तो उसे गीत में बदल दिया। इसका एक और उदाहरण बेटे अख्तर के जन्म के बाद उसके लिए लिखा गया प्यारा सा गीत –‘तेरी प्यारी-प्यारी सूरत को...’ है। विदेश की किसी पार्टी में किसी को देखकर उनके मन में अचानक ही यह खयाल भी आया था - ‘बदन पे सितारे लपेटे हुए’।
हसरत जयपुरी किसी खास तरह के गाने या फिर खाने के लेखक नहीं थे। उनके पास न साहिर वाली तल्खी थी, न फैज या कैफ़ी वाली गहराई। हां दिलकशी और जिंदादिली भरपूर थी। जिंदगी के बहुत कटु और निम्न कहे जाने वाले जीवन अनुभव थे। यहां घोर कलात्मकता नहीं थी पर वह सादादिली और दिलकशी थी जो कड़वे से भी मीठा कुछ निकाल लेती है। रूमानियत उनका सहज स्वभाव थी।
हसरत जयपुरी के शोखी-शरारत भरे चुलबुले शब्द मुकेश की आवाज और राज कपूर की शख्सियत पर कुछ ऐसे फबते थे जैसे परदे पर कोई जादू सा साकार हो रहा हो। इस तिकड़ी में कोई ऐसा तिलिस्म था कि भाव, शब्द आवाज और अदाकारी एक हो जाते थे। उदाहरण के तौर पर - ‘हां मैंने भी प्यार किया...’, ‘ये चांद खिला, ये तारे हंसे…’ जैसे न जाने कितने गीत याद आते हैं।
हसरत साहब की खासियत थी कि उनके एकल गीतों में भी यह जादू खोया नहीं। ‘आंसू भरी हैं ये जीवन की राहें...’, ‘जाऊं कहां बता ऐ दिल...’, ‘दीवाना मुझ को लोग कहें...’, ‘दुनिया बनानेवाले क्या तेरे मन समाई...’, ‘हम छोड़ चले हैं महफ़िल को..’ ये और ऐसे ही कई गीत हर दर्द और तकलीफ में हमें सहज ही याद आते हैं या इन्हें सुनते हुए हम अपनी तकलीफें याद कर लेते हैं।
किसी भी धारा में बहकर और बटकर न लिखने वाला यह लेखक शब्दों से खेलते हुए किसी कुम्हार की तरह नए-नए प्रयोग रचता रहा। वह चाहे शब्दों में तोड़मोड़ हो या अपनी परंपरा से छूट लेकर किए जाने वाले प्रयोग। पहेलियों और लोक-कथाओं के आधार पर रचा गया ‘मेरा नाम जोकर’ का यह गीत - ‘तीतर के दो आगे तीतर, तीतर के दो पीछे तीतर...’ या फिर ‘ईचक दाना बीचक दाना दाने ऊपर दाना...’ सब इसी नया गढ़ने का कौतुक थे।
फिल्मी दुनिया में हसरत जयपुरी के बारे में एक धारणा बन गई थी वे जिस फिल्म का शीर्षक गीत लिखेंगे उसका बेशुमार सफल होना तय है। यही नहीं जो शब्द अब तक कहीं अस्तित्व ही नहीं रखते थे, उन्हें भी गीतों में पिरोकर हसरत जयपुरी ने न सिर्फ उन्हें नए अर्थ दिए बल्कि उनमें मिठास घोल दी। क्या हममें से कोई, ‘रम्मैया वस्तावैया’ या फिर ‘शाहेखुबा’ या ‘जाने-जनाना’ का कोई मुकम्मल अर्थ जानता है? पर गीतों में ये शब्द सार्थक और सजीव हो जाते हैं। दाग के इस मिसरे - ‘तुम मेरे साथ होते हो, गोया कोई दूसरा नहीं होता’ में जब हसरत ‘शाहे खुबा’ और ‘जाने-जनाना’ का तड़का लगाते हैं तो वह कुछ और ही हुआ जाता है। शायद आम लोगों के हिस्से का कुछ। बाद इसके भी कभी जब कहीं शास्त्रीय रचने की जरूरत हुई तो - ‘अजहूं न आए बालमां, सावन बीता जाए…’ और ‘दाग न लग जाए...’ जैसे कई अविस्मरणीय गीत भी उनके ही खाते में आए।
फिल्मों के लिए शीर्षक गीत लिखना सबसे कठिन माना जाता है पर हसरत जयपुरी ने इस मुश्किल को कुछ इस सादगी से अंजाम दिया कि एक धारणा सी बन गई थी कि हसरत जिस फिल्म का शीर्षक गीत लिखेंगे उसका बेशुमार सफल होना तय है। यह बस यूं ही नहीं था। ऐसे गीतों का एक लंबा सिलसिला था जिसमें - दीवाना मुझको लोग कहें (दीवाना), दिल एक मंदिर है (दिल एक मंदिर), रात और दिन दिया जले (रात और दिन), एक घर बनाऊंगा (तेरे घर के सामने), दो जासूस करें महसूस (दो जासूस), एन ईवनिंग इन पेरिस (एन इवनिंग इन पेरिस) जैसे न जाने कितने गीत शामिल थे।
1971 तक आरके बैनर की यह मंडली (राज कपूर, हसरत जयपुरी, शैलेन्द्र और शंकर जयकिशन) बदस्तूर चलती रही। कहा जाता है कि एक ही म्यान में दो तलवारें कभी नहीं होती। संगीतकारों और फिल्म लेखकों की जोड़ियां बनना तो हमारे यहां परंपरा सरीखा है लेकिन आर के के बैनर की म्यान में दो गीत लेखकों (तलवारों) का साथ होना किसी अजूबे से कम नहीं था। शैलेंद्र और हसरत जयपुरी दोनों ही टक्कर के प्रतिभाशाली थे और हद दर्जे के संवेदनशील भी। राज कपूर की छतरी के अंदर और बाहर भी वे बार-बार आमने-सामने होते रहे। जैसे ‘हरियाली और रास्ता में’- ‘बोल मेरी तकदीर में क्या है... (हसरत)’, इब्तिदाये इश्क में हम… (शैलेन्द्र)’ , ‘अराऊंड दि वर्ल्ड’ में – ‘दुनिया की सैर कर लो… (शैलेन्द्र)’, ‘चले जाना जरा ठहरो…(हसरत)’. ‘संगम’ – ‘हर दिल जो प्यार करेगा…(शैलेन्द्र)’, ‘ये मेरा प्रेमपत्र पढ़कर… (हसरत)’. ऐसे और भी मौके आए लेकिन इन दोनों के लिए यह गलाकाट प्रतिस्पर्धा नहीं थी। यदि हम इनके गीतों को देखें तो लगता है कि कहीं न कहीं दोनों ने एक दूसरे को और बेहतर लिखने के लिए ही प्रेरित किया होगा। यह रिश्ता किसी भी क्षेत्र के दो प्रतिस्पर्धियों के लिए एक आदर्श कहा जा सकता है। जो शब्द अब तक कहीं अस्तित्व ही नहीं रखते थे, उन्हें भी गीतों में पिरोकर हसरत जयपुरी ने न सिर्फ उन्हें नए अर्थ दिए बल्कि उनमें मिठास घोल दी, जैसे - रम्मैया वस्तावैया.....
1971 से इस चौकड़ी में बिखराव शुरू हो गया। शैलेन्द्र ने ‘तीसरी कसम’ बनाई लेकिन फिल्म बॉक्स ऑफिस पर नहीं चली। शैलेंद्र इसी सदमे में चल बसे. फिर एक बीमारी के चलते जयकिशन की भी मौत हो गई। हसरत जयपुरी को इसका सबसे ज्यादा धक्का लगा। अब चुप्पी उन पर हावी होने लगी थी। उधर ‘मेरा नाम जोकर’ की असफलता ने राज कपूर को भी हिलाया था पर वे फिर उठ खड़े हुए थे। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और आनंद बक्शी की नई टीम बनाकर वे फिर फिल्मी दुनिया को रंगने लगे थे। मुकेश का जाना भी इसी दरम्यान हुआ।
इस दौर में हसरत के शब्द जैसे चुक गए थे। ‘राम तेरी गंगा मैली’ का शीर्षक गीत उनके हाथ नहीं आया। इसके लिए उन्होंने ‘सुन साहिबा सुन...’ जरूर लिखा था। फिर तकरीबन दस साल के बाद उनके पास शीर्षक गीत लिखने का मौका आया। आर के स्टूडियो की फिल्म हिना के लिए उन्होंने ‘मैं हूं खुशरंग हिना...’ लिखा था। उनके लिखे तमाम शीर्षक गीतों की तरह इस फिल्म और गीत ने फिर कामयाबी का वही इतिहास दुहराया। बाद में भी उन्होंने कुछेक फिल्मों के लिए गाने लिखे लेकिन यह दौर उनका नहीं था। फिर भी जो कुछ वे अपने दौर में फिल्म संगीत के लिए लिख गए वह हमेशा कायम रहने वाला है।