--के• विक्रम राव,
अध्यक्ष - इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स।
सोनिया-नीत कांग्रेस पार्टी ने कल (14 नवंबर 2021) जवाहरलाल नेहरु की जयंती पर संसद के केन्द्रीय हाल के समारोह में भाजपा सरकार के प्रतिनिधियों की अनुपस्थिति पर क्षोभ व्यक्त किया है। हालांकि मोदी शासन के राज्यमंत्री भानु प्रताप सिंह वर्मा आये थे। इस आदमकद चित्र का 5 मई 1966 (निधन तिथि : 27 मई 1964) को राष्ट्रपति डा. सर्वेपल्ली राधाकृष्णन द्वारा अनावरण हुआ था। इन्दिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के तीन माह पूर्व।
यूं तो संसदीय सूत्रों ने बताया कि ऐसे अवसरों पर राज्यसभा सभापति तथा लोकसभा अध्यक्ष की हाजिरी परिपाटी के अनुसार आवश्यक नहीं रही। देश के अबतक 15 प्रधानमंत्री हो चुके है। प्रत्येक की जयंती पर ऐसा नाममात्र का औपचारिक कार्यक्रम होता रहता है। मगर सोनिया गांधी द्वारा आलोचना एक विचारणीय विषय है। अत: शिष्ट व्यवहार की रोशनी में चर्चा हो। याद कीजिये कांग्रेस अध्यक्ष तथा पांच साल तक राष्ट्र के नौवें प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की लाश (23 दिसंबर 2004) पूरे दिन 24 अकबर रोड (कांग्रेस मुख्यालय, अब प्रियंका वाड्रा का आवास भी) की फुटपाथ पर पड़ी रही। सोनिया गांधी का निर्णय था कि दिवंगत अध्यक्ष का शव पार्टी भवन में नहीं रखा जायेगा। सीधे हैदराबाद रवाना कर दिया गया था। चिता पर घी की कमी के कारण मिट्टी के तेल से दहन हुआ था। श्मशान में कांग्रेस का कोई प्रतिनिधि नहीं था। इस अमानुषिक व्यवहार का कारण यही था कि नरसिम्हा राव सोनिया गांधी के प्रखर विरोधी रहे। कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी को सशरीर पार्टी कार्यालय से बाहर सोनिया ने कर दिया था। न नामांकन, न वोट और बिना चुनाव अधिकारी के सोनिया इस सौ साल पुरानी पार्टी की मुखिया घोषित हो गयीं। आज तक हैं। लोकतंत्र के इतिहास में यह एक अजूबा था। फिलवक्त स्वयं नेहरु द्वारा सामान्य आचार-व्यवहार का कितना पालन हुआ इस पर गौर करना समीचीन होगा, चिंतनयोग्य भी।
पहले बात हो भारत रत्न वाले विषय की। कांग्रेस के इतने लंबे शासन में सरदार वल्लभभाई पटेल को भारत रत्न दिया ही नहीं था। अंत में 1991 में नरसिम्हा राव ने सम्मान दिया। पटेल की मृत्यु के पांच दशक पश्चात ! हालांकि नेहरु ने स्वयं को 1955 में ही यह शीर्ष परितोष दे डाला था, अपने को स्वयं दे भी दिया था। ऐसा केवल सुलतान और बादशाह लोग करते थे। खुद की कब्र जीते जी निर्मित कर लेते थे। क्या जाने उत्तराधिकारी उनकी लाश को कहीं बहा दे।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस आज सौ के ऊपर होते, पर उन्हें भारत रत्न दिया ही नहीं गया। हालांकि नरसिम्हा राव ने राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन को (10 अक्टूबर 1991) लिखा था कि नेताजी को भारत रत्न दिया जाये। यूं तो नेहरु ने प्रथम भारत रत्न पुरस्कार सी. राजगोपालाचारी को दिलाया। पर क्या था उनका योगदान? बापू के समधी थे। जब भारत छोड़ो जनान्दोलन 1942 में चला तो राजगोपालाचारी ने उसका बहिष्कार किया था। तब जिन्ना द्वारा पाकिस्तान की मांग की उन्होंने पुरजोर वकालत की थी। भारत के आखिरी गवर्नर जनरल रहे थे। माउन्टबेटन के बाद। प्रथम राष्ट्रपति, गांधीवादी डा. राजेन्द्र प्रसाद को 1962 में दिया गया। रिटायर होने पर।
अत: नेहरु जयंती पर सिर्फ एक औपचारिक समागम का न आयोजित होना यदि भाजपाईयों की कोताही है, तो फिर भारत रत्न प्रदान करने में ऐसी जानीबूझी विषमता क्या है? यह तो दिमागी ओछापन?
ऐसा ही माजरा राजघाट पर दिखता रहा। पांच वर्ष प्रधानमंत्री रहे नरसिम्हा राव को तेलंगाना के अपने गांव में अंतिम ठौर मिला। मगर किसी भी राजकीय पद पर कभी न रहने वाले संजय गांधी का शव दहन बापू के राजघाट पर हुआ। सोनिया के देवर थे !!
नेहरु के निधन के तुरंत बाद कई पत्रकार साथियों ने बताया कि डॉ. राममनोहर लोहिया ने नेहरु के निधन पर कोई शोक संवेदना नहीं व्यक्त की। यह भ्रामक है, असत्य हैं। लोहिया मई 1964 में जैक्सन नगर (मिसीसिपी प्रदेश, दक्षिणी अमेरिका) के एक रेस्तरां में अश्वेतों पर लगे प्रवेश निषेध का विरोध करने पर गिरफ्तार किये गए थे। अमरीकी जेल में थे। इस वारदात पर राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने डॉ. लोहिया से क्षमा याचना भी की थी। पर लोहिया ने अपील की कि समतामूलक लोकतंत्र में इस नस्लभेद पर स्टेच्यू ऑफ़ लिबर्टी (स्वतंत्रता की देवी) से राष्ट्रपति क्षमा याचना करें। भारत वापस आने पर डॉ. लोहिया ने नेहरु की मृत्यु पर हार्दिक शोक व्यक्त किया। उनके शब्द थे : “यदि बापू मेरा सपना थे, तो जवाहरलाल मेरी अभिलाषा।” पत्रकारों ने विस्तृत (नमकीन) संदेशा माँगा तो लोहिया ने कहा कि छः माह तक वे नेहरु पर कुछ नहीं बोलेंगे। पर प्रेस की जिद पर लोहिया बोले : “नेहरु ने अपनी संपत्ति अपने परिवार को दे दी। भस्म देश को दिया।” नेहरु ने वसीयत में लिखा था कि उनका शव दहन हो और राख आसमान से भारत के खेतों में बिखराया जाय।” आनंद भवन पुत्री को दे दिया।
नेहरु राज के बीते सात दशक हो गये। अब जयंती के अवसर पर उस काल की ऐतिहासिक समीक्षा और विश्लेषण का अवसर आ गया है। नेहरु वंश के नाम पर राजकाज चला भी और अगले लोकसभा चुनाव में फिर उनके आत्मज वोट की याचना करेंगे। अत: उनकी राजनीति की एक निष्पक्ष तथा वस्तुपरक समालोचना होनी चाहिये।
मसलन भारत-चीन सीमा समस्या। बड़ी विकराल होती जा रही है। तिब्बत पर कम्युनिस्ट चीन के आधिपत्य से लेकर लद्दाख और अरुणाचल की दशा पर सम्पूर्ण विश्लेषण तथा समाधान होना चाहिये। यह नेहरु काल की घटनाएं हैं। इन पर विचार करने से आगामी नीतियों की रचना सरल होगी। टालने के मायने होंगे शुतुरमुर्ग जैसा व्यवहार। कोविड को फैलाकर चीन ने वैश्विक दहशत फैला दी है। अब शी जिनपिंग के अवतार में हिटलर, मसोलिन और चंगेज खां का एकीकृत आधुनिक संस्करण आ गया है। नेहरु की बेटी के पोते को न तो इतिहास का बोध है, न भूगोल का ज्ञान है। अर्थात प्राचीन भारतीय सभ्यता को बचना राहुल के विवेक तथा कर्मों पर नहीं छोड़ा जा सकता है।