घरेलू कामवाली की व्यथा-कथा का मंचन !!



--के• विक्रम राव,
अध्यक्ष - इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स।

नाटकाकार भाई प्रदीप घोष (मो. : 9453414604) एक स्पर्शमणि हैं जो किसी भी कलारूपी धातु को छूते ही कंचन रूप दे देते हैं। उनका यह हूनर है, नैपुण्य भी। अमेरिका (हार्वर्ड) में शिक्षित साहित्यकार कृष्ण बलदेव वैद्य के उपन्यास “एक नौकरानी की डायरी” का यह नाटक रूपांतर है। स्वयं एक श्रमजीवी के नाते मुझे इसका लखनऊ के मंच पर प्रस्तुतीकरण बड़ा नीक और मनभावन लगा। इसमें घरेलू श्रमिकों के संघर्ष, जीने की कामना, रोजाना जूझना, फिर भी कार्यरत कुशलता से रहना इत्यादि का उम्दा चित्रण है। प्रदीप बाबू की कुशाग्र सोच और दक्ष नजर की यह देन है। यूं लंबे, भटकते उपन्यास का सार निचोड़कर पात्रों द्वारा जीवंत करना बड़ा दुश्वारी भरा है। मगर प्रदीप बाबू ने अपनी अर्हता और सूझबूझ से इस कष्टसाध्य कृति को बोध गम्य बना ही दिया। मसलन मंच की सादगी लुभा गई। कोई टीमटॉम झमेला नहीं था। क्या सुगमता रही? सब कुछ ससम्मान पेश किया गया था।

पूरी पटकथा अस्सी मिनट तक एक घरेलू नौकरानी के इर्द-गिर्द घूमती है। नीशु सिंह हैं मुख्य कलाकार जिन्होंने अन्य पात्रों की वेशभूषा को भी डिजाइन किया था। निशु के अभिनय में खुद पर अपार भरोसा दिखा, संवाद बोलने की निर्बाध कला भी। नाटक का सारा दारोमदार उन्हीं की अदाकारी पर आश्रित है। बाकी पात्र नौकरानी के इर्द गिर्द ही मंडराते रहते हैं। खासकर निशु का स्वगत भाषण (एकालाप) अत्यंत सटीक रहा। दर्शकों ने खूब सराहा भी। संत गाडगे हाल (गोमती नगर, लखनऊ) खचाखच भरा था। नाटक की कला के प्रति बढ़ती रूचि देखने में आह्लादमयी लगी। पर अधिकतर आमंत्रित थे। कब वह घड़ी आएगी जब मुंबई, बड़ौदा, सूरत आदि की भांति हिंदी नाटक के टिकट भी एडवांस बुकिंग से पाए जाएंगे?

पेपरवाला साहब (पत्रकार) की भूमिका में नरेंद्र पंजवानी तथा मां (कीर्तिका श्रीवास्तव) की किरदारी भा गई। मगर मिसेज वर्मा (ज्योति नंदा) और ललिता (अनन्या सिंह) के नारी सुलभ लटके-झटके अंत तक पर्याप्त मनोरंजन करते ही रहे। अन्य कलाकारों में सीबू पदो चौधरी, कृष्ण कुमार पांडे, रोहित सिंह, वैभव पांडे आदि थे।

निर्देशक और परिकल्पना करने वाले प्रदीप घोष ने भी बताया कि : “इस उपन्यास का रूपांतरण एक ऐसा विषय था जिसकी हर एक घटना और उस पर शानो (मुख्य पात्र) का सोचना तथा उसके विश्लेषण को छोड़ कर आगे बढ़ जाना बड़ा कठिन था। यह भी संभव नहीं कि इतने बड़े उपन्यास के समस्त बिंदुओं पर काम किया जा सके। अतः यह मेरे लिए कठिन काम था।” फिलहाल लेखनी के मर्म को प्रदीप घोष समझने और पेश करने के प्रयास में बड़े कामयाब रहे। यह अपने किस्म का अनूठी पेशकश रही।

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