पुरखों के हत्यारों के देश में द्रौपदी मुर्मू !



--के. विक्रम राव,
अध्यक्ष - इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स।

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू मलिका एलिजाबेथ द्वितीय के अंतिम संस्कार (19 सितम्बर 2022) में शरीक होने जा रहीं हैं। यह कितना औचित्यपूर्ण है? क्या गलीच उपनिवेशी मानसिकता का घोतक नहीं है? शोषक ही शोषित के साथ! तो सार्वभौम गणराज्य की गरिमा, मर्यादा और सम्मान का अवमूल्यन नहीं है?

यह खबर पढ़कर बाबा नागार्जुन की सात दशक पूर्व की पंक्तियां अनायास ही याद आ गयीं। तब 35-वर्षीया यही महारानी गणतंत्र दिवस (26 जनवरी 1961) पर विशेष अतिथि थीं। बाबा ने तब लिख था:

आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी,
यही हुई है राय जवाहरलाल की।
बेबस-बेसुध, सूखे-रुखड़े,
हम ठहरे तिनकों के टुकडे़।
टहनी हो तुम भारी भरकम डाल की।
भूखी भारत-माता के सूखे हाथों को चूम लो।
प्रेसिडेंट के लंच-डिनर में स्वाद बदल लो, झूम लो।
यह तो नई-नई दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो।
एक बात कह दूँ मलका, थोड़ी-सी लाज उधार लो।
बापू को मत छेड़ो, अपने पुरखों से उपहार लो।

जब महारानी एलिजाबेथ को दफन होते द्रौपदी मुर्मू देखेंगी तो उन्हें क्या उनके पूर्वज मुर्मूबंधू कान्हू और सिद्धू की याद आयेगी? इन दोनों संथाल युवा विद्रोहियों को ब्रिटिश साम्राज्य के सशस्त्र गुर्गों ने संगीनों से भोंक-भोंक कर मार डाला था। उन दोनों के नेतृत्व में हजारों संथाल स्वाधीनता सेनानी ब्रिटिश शासकों द्वारा थोपे लगान और महसूूल वसूलना, फसल काट लेना, उनका माल असबाब लूटना आदि का विरोध करते हुए वे शहीद हुये थे। इन्हीं गोरे रहजनों (30 जून से 10 नवम्बर 1855 तक) ने नृशंस, भयावह और आततायी संहार किया था। फिर आये ईसाई पादरी जिन्होंने सैनिकों के बल पर खेती की जमीनों को हथिया लिया। युद्ध भी कितना असमान था? बन्दूकों और तोपों का मुकाबला इन बहादुर संथालियों ने अपने तीर कमान, भाला, बर्छी से किया। कितना कर पाते? कौम पर निछावर हो ही गये। तो उनके उत्सर्ग का नजारा राष्ट्रपति की आंखों के सामने उभरेगा? वे क्या जानना चाहेंगी कि कितने अंग्रेज अपराधी दण्डित हुये, सूली पर चढ़े?

इस वर्ष के गणतंत्र दिवस परेड पर नरेन्द्र मोदी के गुजरात की झांकी में साबरकांठा जिले के भील जनजाति के लोगों का दृश्य था। जब वे अपनी जमीन बचा रहे थे, उनको अंग्रेजों ने भून दिया था। वे अपने वनों के खातिर जूझ रहे थे। इस गोली काण्ड को ‘‘गुजरात का जलियांवाला बाग‘‘ कहा जाता है। जमींदारों तथा सूदखोरों के जाल में फंसे किसान भील कैसे आत्मरक्षा कर पाते?

याद कीजिये तिलका माझी को? पन्द्रह सालों तक वह झारखण्ड, बिहार तथा बंगाल में (1770 से 1785 तक) ईस्ट इंडिया कंपनी से लोहा वे लेते रहे। उस वर्ष फसल सूखे से बरबाद हो गयी थी। तभी बंगाल में भीषण दुर्भिक्ष पड़ा था। तिलका माझी ने खेतिहरों को संगठित किया। मगर वह पकड़ा गया। घोड़ों के नाल तले रौंदा गया। शहीद हो गया तिलका माझी। फिर भी भागलपुर में उसे फांसी पर लटकाया गया। मगर उसके साथियों ने बदला लिया। ईष्ट इंडिया कम्पनी के कई भाड़े के सिपाही मारे गये। हजारीबाग में दस्तावेज हैं जिनमें इसका उल्लेख है। छोटा नागपुर में 1831 में आदिवासी बगावत कर बैठे। कम्पनी की सशस्त्र सेना ने संहार किया। सोनपुर, पलामू, राजमहल इलाकों में हुआ दमन वीभत्स था। अपने शोधपत्र में डेनियल जे. राईक्राफ ने 2014 में ‘‘दि हिस्टोरिवाल डाईनामिक्स आफ आदिवासी‘‘ किताब में इन जुल्मों का विवरण दिया हैं।

अंग्रेजों का गोंड, मुण्डा, संथाल, भील आदिवासियों ने विरोध किया था। किंतु आधुनिक अस्त्रों के समक्ष टिक नहीं पाये। पूर्वोत्तर में नागा, कूकी, लोशाई, खासी, गारो की लड़ाई अविस्मरणीय है। सर्वाधिक दुखद था 1870 का ब्रिटिश कानून (क्रिमिनल ट्राइबल्स एक्ट) जिसके तहत सैकड़ों जनजातियों को अपराधिक करार दिया गया। उनके खेत छीने गये। उन्हें इस एक्ट के तहत जेल और फांसी दे दिया जाता था। यह अमानवीय कानून आजादी के बाद तक लागू रहा। अविभाजित बम्बई के मुख्यमंत्री बीजी खेर, मोरारजी देसाई और गुलजारी लाल नंदा की समिति ने इस कानून को निरस्त किया। इन कथित ‘‘अपराधियों‘‘ की संख्या करीब सवा करोड़ थी। उन्हें पक्का घर बनाने की अनुमति नहीं थी। उनका अंगूठा कोर्ट के कागजों पर लगवाया जाता था। उनके विरोध को अवैध करार देकर बर्बरता से कुचला जाता रहा। स्वतंत्रता के पांच वर्ष बाद (1952) में यह 1870 का दानवी कानून अंततः खत्म हुआ। नतीजे में चौबीस लाख सूचीबद्ध आदिवासी सामान्य नागरिक के वर्ग में आ गये।

यहां बागियों की श्रेणी के शीर्ष में झारखण्ड के बिरसा मुण्डा (15 नवम्बर 1875 से 9 जून 1900 तक) का नाम आता है। उसे आदिवासी लोग साक्षात भगवान मानते थे। मुण्डा तथा ओरांव सामंतों के खास शिकार रहे। बिरसा मुंडा ने अपने मुंडा लोगों को बताया था कि विक्टोरिया महारानी का राज खत्म होगा। उसके सर पर पांच सौ रूपये का ईनाम था। उसे जेल में तड़पा कर मारा गया और वह 9 जून 1900 के दिन शहीद हुआ। यहां उल्लेख आवश्यक है कोया आदिवासी हीरो अल्लूरी सीताराम राजू (1922)। एक तेलुगुभाषी बागी था। उसके नाम पर फिल्म बनी थी। नरेन्द्र मोदी ने उन्हें श्रद्धांजलि दी थी। आंध्र के पूर्वी घाट में रम्पा विद्रोह (1922) से सीताराम जाने जाते है।

तो यह है संक्षिप्त सूची इन आदिवासी योद्धाओं तथा शहीदों की। द्रोपदी मुर्मू के पास तो इससे भी लम्बी लिस्ट होगी। उन्हें लंदन में वितरित करना चाहिये। साम्राज्यवादी हत्यारों को लाज तो आये। महारानी के वंशज पश्चाताप या प्रायश्चित तो करें।

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