समाजवाद के लौहस्तंभ



--के• विक्रम राव,
अध्यक्ष - इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स।

जब मुलायम सिंह यादवजी ने सोलहवीं लोकसभा में (बुधवार, 13 फरवरी, 2019, आम चुनाव के पूर्व) खुले तौर पर ऐलान कर दिया था कि उनकी शुभाकांक्षा है कि नरेन्द्र दामोदरदास मोदी दूसरी बार प्रधानमंत्री बन जायें तो कुछ को अचरज हुआ था। तब सोनिया गांधी भी मुलायम सिंह जी के साथ अगली सीटों पर विराजमान थीं। उस दिन भाजपाई मेजें बहुत जोर से पीटकर इस लाल टोपीधारी लोहियावादी का अभिवादन कर रहे थे। कठोर विरोधी ऐसे उदार हों इससे भारतीय संसदीय लोकतंत्र की सहनशीलता ही उजागर हुई थी। मुलायम सिंह यादव अपने नाम की भांति ही सियासत भी करते है। गैरसमाजवादी मुख्यमंत्री भी हर 22 नवम्बर को उनके आवास पर जाकर पुष्पादि भेंटकर, नतमस्तक होकर श्रद्धा दर्शाते हैं। जनतंत्र की यह परिपक्वता है।

मेरा मुलायम सिंह जी से अर्धसदी का साथ रहा है। हालांकि सोशलिस्ट पार्टी में 1956 में मैं भर्ती हो गया था। लखनऊ विश्वविद्यालय की समाजवादी युवक सभा का सचिव था।

मुलायम सिंहजी भी सबको लेकर चलने वाली प्रवृत्ति (नरेन्द्र मोदी तब तक राजनीति में प्रवेश नहीं किये थे) का खिंचाव काफी था। उनके चन्द प्रासंगिक विचारों पर चर्चा हो। आज वे स्वास्थ्य के कारणवश सत्ता से दूर हो, पर उनसे याराना, लगाव तथा सम्मान रहेगा ही।

डा• लोहिया के अनन्य अनुयायी होने के नाते मुलायम सिंह जी लोहिया की विश्वयारी के सपने को साझा करते थे। उनका सपना था कि पासपोर्ट तथा बीजा वाली व्यवस्था खत्म जाये। पक्षी की भांति मानव भी संसार को बिना सरहद का बना दे। इसी अवधारणा को मुलायम सिंहजी ने भी रेखांकित भी किया था। लोहिया की जयंती पर (23 मार्च 2004 को) लोहिया ट्रस्ट की सभा लखनऊ में। उनके शब्द थे : ''समाजवादी पार्टी चाहती है कि सरहदें खत्म हों, पासपोर्ट की आवश्यकता न पड़े। आना—जाना शुरू हो जाये। उस वक्त ही यह दोस्ती स्थायी हो सकती है। हमारा देश विश्व का सबसे शक्तिशाली देश बन सकता है, लेकिन कोई यह समझे कि दो सरकारें मिलकर मुल्कों की दोस्ती करा देंगी, यह मेरे जैसे समाजवादियों को समझ नहीं आता। जब तक दोनों देशों की जनता खड़ी नहीं हो जाती है, दोस्ती नहीं होगी। हम पहले भी कह चुके हैं।''

एक बार मुख्यमंत्री मुलायम सिंहजी वृन्दावन (22 दिसम्बर 2002) आये थे। वहां हमारे इण्डियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स यूनियन (आई•एफ•डब्ल्यू•जे•) की राष्ट्रीय परिषद का पचासवां अधिवेशन था। धार्मिक स्थल को विचार यज्ञ हेतु चयनित करने पर आई•एफ•डब्ल्यू•जे• को बधाई देते हुये, मुलायम सिंहजी बोले,: ''वृंदावन का नाम लेते ही भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान अपने आप ही आ जाता है। भगवान श्रीकृष्ण एक ऐसे अलौकिक व्यक्तित्व थे, जिन्होंने जीवनभर देश की एकता के हक में और अन्याय के खिलाफ संघर्ष किया। उन्होंने अपने जीवन में जितनी तकलीफें झेलीं, शायद ही किसी दूसरे महापुरूष ने झेली होंगी। पत्रकारों के सम्मेलन के लिए, कर्म और सत्य के मार्ग पर चलने वाले भगवान श्रीकृष्ण की जन्मभूमि से उत्तम दूसरा कोई स्थान हो ही नहीं सकता था।''

राजनेता का दिल भी सरस होता है। एक साहित्यप्रेमी के नाते इटावा में आयोजित (12 दिसम्बर 2003) अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में मुलायम सिंह जी ने एक सामान्य श्रोता के नाते कहा,: ''मेरा कवि सम्मेलनों से पुराना संबंध रहा है। बहुत दिनों पहले तक एकदम पीछे बैठ कर कवियों—शायरों को सुनता था और मूंगफली के सहारे सारी रात जागता था।''

नेहरू—राजेन्द्र प्रसाद विवाद से अमूमन सभी चिंतित रहते थे। हालांकि सब जानते है कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रपति डा• सर्वेपल्ली राधाकृष्णन को राजेन्द्र बाबू के शव दहन पर पटना जाने से मना किया था। मगर वे गये। उधर राजेन्द्र बाबू के पुराने साथी बाबू संपूर्णानंद भी पटना जा रहे थे। वे नहीं जा पाये क्योंकि जानबूझकर प्रधानमंत्री ने अपना उसी दिन का सरकारी कार्यक्रम जयपुर में तय कर लिया। संपूर्णानंद जी राजस्थान के राज्यपाल थे। प्रोटोकोलवश नेहरु के आगमन के कारण राज्यपाल को राजधानी में ही रुकना पड़ा। समाजवादी सोचवाले मुलायम सिंह जी डा• राजेन्द्र प्रसाद के बारे में बड़े स्पष्ट और आदर भाव रखते थे। उन्होंने राजेन्द्र बाबू की जन्मसती पर लखनऊ में उनकी प्रतिमा का अनावरण करते समय (3 दिसंबर 2003) कहा था, : ''राजेन्द्र बाबू का सम्मान इसलिए ही नहीं है कि वह देश के प्रथम राष्ट्रपति थे। वह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सच्चे अनुयाई थे। आजादी की लड़ाई के अंतिम दिनों में देश में एक ऐसा वातावरण तैयार हुआ था कि हिंदुस्तान के अन्दर तीन गांधी कहे जाते थे। प्रथम मोहनदास करमचंद गांधी, खान अब्दुल खान साहब और डा• राजेन्द्र बाबू। बिहार में आज भी राजेन्द्र बाबू को बिहार के गांधी के नाम से याद किया जाता है।''

मुलायम सिंह जी की एक विशिष्टता रही। वे आयोजकों की त्रुटि को इंगित करने से नहीं हिचकते थे। पिछले दशक में हिन्दी दिवस समारोह (14 सितम्बर) उन्होंने लखनऊवासियों को टोका था। अंग्रेजी में वह बैनर आपत्तिजनक है। उन्होंने समझाया कि सबसे ऊपर नागरी लिपि, दूसरी लाइन में अंग्रेजी फिर उर्दू लिपि में लिखवाना चाहिए था। उन्होंने चेताया कि वे इसे देख लेते तो पहले ही उतारकर फेंक देते।

मगर मुलायम सिंह जी जब भारत में रक्षामंत्री थे तो हम लोहियावादियों की अपेक्षा थी वे शपथ लेकर पहला काम करेंगे कि 1962 में चीन की सेना द्वारा भारत को बुरी तरह परास्त करने के कारणों पर रचित जांच रपट (हेंडर्सन बुक्स रिपोर्ट) को सार्वजनिक करेंगे। तब तक साढ़े तीन दशक हो गये थे। मगर रक्षामंत्री ने 11 जुलाई 1996 के दिन राज्यसभा में भाजपायी सदस्य और पत्रकार केवलराम मलकानी के राज्यसभा तारांकित प्रश्न पर जवाब दिया था कि, "1962, 1965 और 1971 के युद्धों के इतिहास में प्रयुक्त सामग्री वर्गीकृत है। अत: जनहित में उन्हें प्रकाशित नहीं किया गया है"।

हम जैसे लोहियावादियों को इस से ग्लानि हुई थी। नेहरू, शास्त्री, राजीव गांधी, नरसिम्हा राव वाली कांग्रेसी सरकारें पूर्वोंत्तर तथा लद्दाख में भारतीय सेना की लज्जाजनक पराजय को बर्दाश्त करती रहीं।

भारतीयों की आशा है रक्षामंत्री ठाकुर राजनाथ सिंह जी कि 1962 की जांच रपट को सदन में सार्वजनिक करें। अब तो पचास वर्ष से अधिक हो गया है। वर्गीकृत दस्तावेज की गोपनीयता की समय सीमा भी पूरी हो गई है। राष्ट्र जानना चाहता है कि भारत 1962 में क्यों हारा?

आज ये प्रसंग अत्यधिक समयिक है।

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