दुर्गा पूजा दौरान मुस्लिम फकीरों को खिलाते हैं खाना  



---रंजीत लुधियानवी, वरिष्ठ पत्रकार, कोलकाता।
पश्चिम बंगाल में हुगली जिले का नंदी परिवार पिछले 200 सालों से हिंदुओं के त्योहार दुर्गा पूजा दौरान मुस्लिम फकीरों को खाना खिलाता है। नंदी परिवार का कहना है कि इस वार्षिक रीति के पीछे उनके परिवार से जुड़ी एक कहानी है, जो स्थानीय मुस्लिम समुदाय की उदारता की प्रतीक है। यह एक ऐसे समय में बंगाल के इस सबसे बड़े पांच दिवसीय त्योहार से जुड़े बेशुमार उदाहरणों में से एक है, जब दुनिया शत्रुता और सामाजिक धुव्रीकरण में जकड़ी है।

परिवार की नौंवी पीढ़ी के वंशज 80 वर्षीय सतीपती नंदी के मुताबिक यह हिन्दू-मुस्लिम एकता यहां बेहद आम बात है। यह परिवार एक समय में पूर्वी भारत में सुपारी का सबसे बड़ा आयातक रहा है। नंदी ने इस बारे में पत्रकारों को बताया कि यह आज एक बड़ी बात लग सकती है, लेकिन यह परंपरा सदियों पहले शुरू हुई थी। कहा जाता है कि कुबेर शंकर और कामा शंकर नाम के दो भाई उत्तर चौबीस परगना के हलीशहर में पकौड़े बेचते थे। उन्हें एक फकीर ने जो भी चीज उन्हें सबसे पहले दिखे उसका उद्यम शुरू करने के लिए एक सोने की मोहर दी थी। उसके बाद का इतिहास सामने है।

नंदी परिवार ने सुपारी का कारोबार शुरू किया, फिर अचल संपत्ति का कारोबार शुरू किया और राज्य में कई संपत्तियां खरीदीं, जिनमें हुगली के पांडुआ में स्थित परिवारिक आवास और दक्षिणी कोलकाता के गारिया में जमीन भी शामिल है। इस बारे में नंदी ने कहा कि उस उदार फकीर की याद में हम दुर्गा नवमी के दिन दो फकीरों को भोजन कराते हैं। अगर हमें कोई फकीर नहीं मिलता तो हम मुस्लिम समुदाय के किन्हीं दो लोगों को खिलाते हैं। 

यह सांप्रदायिक सौहार्द्र राज्य की राजधानी कोलकाता में भी नजर आता है। शहर के बीचोबीच कुम्हारटोली  में दुर्गा की प्रतिमाएं बनाई जा रही हैं। उन पर रंगरोगन किया जा रहा है और उन्हें खूबसूरत साड़ियां पहनाई जा रही हैं। उनके सिरों पर जो जूट की चोटियां और घुंघराले बाल पहनाए जाते हैं, वे मुस्लिम कारीगरों की ओर से  तैयार किए जाते हैं। यहां हर साल लगभग 5,000 दुर्गा प्रतिमाएं बनती हैं और इस मूर्तिकारों, उनके सहायकों, साज-सज्जा करने वालों और सेल्फी स्टिक लेकर घूमते पर्यटकों के चहल-पहल वाली इस बस्ती के काम में न तो मूसलाधार बारिश आड़े आती है और न ही धर्म।  

इस काम में करीब 400 'शिल्पी' (कारीगर) जुटे हैं। प्रतिमाओं को अंतिम रूप देने का काम महालया (19 सितंबर) से एक पखवाड़े पहले शुरू हो जाता है। शिल्पियों के प्रवक्ता बाबू पाल ने इस बारे में पत्रकारों को बताया कि बाल लगाना प्रक्रिया का महत्वपूर्ण हिस्सा है। जूट की विग हावड़ा के नजदीक पार्वतीपुर और अन्य क्षेत्रों के मुस्लिम परिवार तैयार करते हैं। सामान्य तौर पर प्रतिमाओं को घुंघराले बालों वाला विग लगाया जाता है, जो काले रंग का होता है, लेकिन गहरे भूरे रंग के विग भी बनाए जाते हैं। 

इस बारे में और ज्यादा जानकारी देते हुए पाल ने कहा कि हर कोई मूर्तियां देखने आता है। वे प्रशंसा करते हैं, तस्वीरें लेते हैं और चले जाते हैं। लेकिन बात केवल मूर्ति की बात नहीं है। देवी की मूर्ति को टुकड़ों-टुकड़ों में बनाया जाता है। मुस्लिम कारीगार आमतौर पर उनके कपड़े और विग तैयार करते हैं। मौजूदा माहौल के बारे में उनका कहना है कि आप गाय पर राजनीति कर सकते हैं और इसे धर्म से जोड़ सकते हैं, लेकिन हमारे लिए यह हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। यहां कोई भी इस (हिंदू-मुस्लिम मुद्दों) पर बात नहीं करता। 

इंडोलोजिस्ट नृसिंह प्रसाद भादुड़ी के मुताबिक अविभाजित बंगाल में दूगार्पूजा के दौरान हिन्दू-मुस्लिम एकता कोई अनोखी बात नहीं थी। उनका कहना है कि भौगोलिक बाधाओं के बावजूद यह जारी है, क्योंकि दुर्गा पूजा उत्सव एक बड़ा उद्योग है, जो सभी समुदायों को रोजगार देता है। केवल नेता और सांप्रदायिक लोग ही इसे अलग मोड़ देते हैं। दुर्गा विसर्जन के समय भी सभी साथ मिलकर देवी और उनके परिवार को विदा करते हैं। देवी दुर्गा को धार्मिक प्रतीक के रूप में नहीं, बल्कि शक्ति के स्त्रोत  के रूप में देखा जाता है। 

उनका कहना है कि इस सौहार्द की झलक देखने के लिए ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। हुगली के बेगमपुर शहर में भी कई मुस्लिम परिवारों को दुर्गा पूजा को हिंदुओं को दूसरे अल्पसंख्यकों के साथ जोड़ने वाले एक त्योहार के रूप में मनाते देखा जा सकता है। कम से कम बंगाल में तो यह इसी संस्कृति का प्रतीक है। बंगाल के लोगों को हिंदु-मुस्लिम भाइचारे की बात अनोखी नहीं लगती, लेकिन जिन लोगों को यहां की सभ्यता - संस्कृति की जानकारी नहीं वे लोगों में विभाजन की कोशिश कर रहे हैं।

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