--- राज खन्ना, वरिष्ठ पत्रकार।
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने विपक्षियों से हमले का एक मौका छीन लिया है। अब तक उनकी विदेश यात्राओं को बेहद गोपनीय रखा जाता था। विदेश में उनका अज्ञातवास अटकलों का सबब बनता था और फिर सोशल मीडिया से लेकर हर माध्यम पर कहानियां तैरती थीं। इस बार वे अमेरिका में हैं। वहां से मोदी सरकार पर लगातार प्रहार कर रहे हैं। देश में रहते हुए भी मोदी और उनकी सरकार को घेरने का वे कोई मौका नहीं छोड़ते थे। लेकिन अमेरिका में रहते हुए सरकार विरोधी उनकी बातें ज्यादा गौर से सुनी जा रही हैं। क्यों ? एक बड़ी वजह अमेरिका जैसे ताकतवर मुल्क में बैठकर कोई बाहरी नेता जब अपने देश के नेतृत्व की आलोचना करता है तो मीडिया की उसे ज्यादा तवज्जो मिलती है। दूसरे देशों के कूटनीतिक उसके जरिए संबंधित देश की दशा-दिशा की नब्ज टटोलने की भी कोशिश करते हैं। लेकिन इनसे हटकर अमेरिका में राहुल के भाषण या बयान अगर भारत में लोगों का ध्यान आकृष्ट कर रहे हैं तो वजह की तलाश वाजिब होगी। कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कुछ महीने पहले कहा था विपक्ष 2024 की तैयारी करे। परोक्ष में 2019 की लड़ाई लड़े बिना हार कुबूल का संदेश था। लेकिन थोड़े से अंतराल पर अगर-मगर के बीच विकल्प की बात होने लगी है। क्या राहुल विकल्प हो सकते हैं ? मोदी की लोकप्रियता पर अगर सवाल है तो विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के चेहरे की उन्हें चुनौती देने की कूबत उससे बड़े सवालों के घेरे में है। केवल क्षमता नहीं बल्कि ताकतवर प्रतिद्वंदी से मुकाबले को लेकर अपनी गंभीरता को भी राहुल को साबित करना है। इसकी एक वजह यह भी मुमकिन है कि अब लोगों के बीच 2019 में मोदी की वापसी पर खुसुर-फुसुर होने लगी है। कुछ महीनों पूर्व तक मोदी भक्त हर मोर्चे पर काफी मुखर थे। गली-चौराहों-चौपालों पर मोदी विरोध में बोलने वालों की लोग फजीहत कर डालते थे। सोशल मीडिया पर सिर्फ और सिर्फ मोदी थे। 2014 की बुरी पराजय के बाद राहुल गांधी को इस माध्यम ने प्रहसन का पात्र बना दिया। उन्हें लेकर चुटकुले - कार्टून और खिल्ली उड़ाने की होड़ थी। यह अभी भी बंद नहीं हुए हैं। राहुल कुछ न कुछ ऐसा बोलते-करते भी रहते हैं। लेकिन उनकी गति कुछ थमी है। आकार कुछ सिकुड़ा है। क्या इसलिए कि उन्हें परास्त और चुका मानकर कुछ राहत दी जा रही है ? पर ज्यादा गौर लायक मुद्दा यह है कि इस स्पेस को मोदी से जुड़े तंज-ठिठोली भरते नजर आ रहे हैं। अचानक उनके हवा-हवाई वायदे, जुमले बाजी, नोटबंदी के धड़ाम होने, जीएसटी के बाद की अफरातफरी, गिरती अर्थव्यवस्था और बढ़ती महंगाई के कारण वे निशाने पर हैं। मीडिया का बड़ा हिस्सा सत्ता से टकराने के पहले हवा का रुख भांपता है। नफा-नुकसान तौलता है। फिर दांडी अनुकूल दिशा में झुकाता है। सोशल मीडिया के सामने ऐसी बंदिशें नहीं हैं। उसके नायक तेजी से हिट और फिर उतनी तेजी से फ्लाप होते हैं।
राहुल ने अमेरिका में कहा है कि वे बड़ी जिम्मेदारी उठाने को तैयार हैं। जाहिर तौर पर उनका आशय पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी संभालने से है। औपचारिक रूप से अध्यक्ष बने बिना भी उनके अधिकारों में कौन सी कमी रही है ? देश की सबसे पुरानी कांग्रेस पार्टी के प्राण गांधी परिवार में बसते हैं। किसी विपक्षी की मदद की क्या जरूरत ! सामान्य लोग भी इस सच से वाकिफ़ हैं। जनवरी 2013 में कांग्रेस के जयपुर अधिवेशन में राहुल पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाए गए थे। याद कीजिए 27 सितंबर 2013 की तारीख। पार्टी की एक प्रेस ब्रीफिंग में उनका पहुंचना और फिर सजायाफ्ता सांसदों की सदस्यता के बचाव से जुड़े अपनी पार्टी की सरकार के अध्यादेश की प्रति फाड़कर अपने गुस्से का इजहार। इस घटना के कुछ घंटे के अंतराल पर मनमोहन सिंह की बराक ओवामा से मुलाकात तय थी। उसी अमेरिका में जहां बैठकर राहुल अपनी पार्टी को संभालने की बात कह रहे हैं। मनमोहन सरकार के अध्यादेश से तौबा करने की बात लोगों की स्मृतियों में है। कई मौकों पर राहुल से सरकार से जुड़ने का मनमोहन सिंह ने सार्वजनिक आग्रह किया।
प्रधानमंत्री अगर राहुल के सामने बेबस दिखे तो पार्टी और उस वक्त की सरकार में राहुल की ताकत पर किस सबूत की दरकार होगी ? राहुल कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष पद कब संभालते हैं, इसमें न कांग्रेसियों को दिलचस्पी है और न जनता को। जिसे कांग्रेस में रहना है उसे पता है कि गांधी परिवार पार्टी का पर्याय हैं। लगातार असफलताओं के बाद भी राहुल के लिए पार्टी के भीतर कोई चुनौती नहीं है। राहुल के सामने असली चुनौती उस मतदाता के भरोसे को जीतने की है, जिसने 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी को 44 सीटों पर समेट कर विपक्षी नेता के औपचारिक दर्जे को हासिल करने लायक हैसियत भी नहीं छोड़ी। इसके बाद के राज्य विधानसभा के चुनावों में पार्टी ने केरल, असम, उत्तराखंड, कश्मीर की सरकारें गंवा दीं। गोवा, मणिपुर में ज्यादा सीटों के बाद भी कुप्रबंधन की बदौलत पार्टी को विपक्ष में बैठना पड़ा। बिहार में चौथे नंबर की हैसियत में नीतीश-लालू गठबंधन में पार्टी को कुछ दिन भले सरकार में रहने का मौका मिला हो लेकिन फिलहाल उसके कुल 27 विधायकों में अधिकांश के पाला बदलने का खतरा है। पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में पार्टी पहले से भी बुरे हाल में पहुंच गई। आंध्र-तेलांगना में भी यही हाल है। 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में पार्टी की बुरी दुर्गति हुई। पंजाब इकलौता राज्य है जहां पार्टी की सत्ता में वापसी हुई। कर्नाटक, हिमाचल में जहां फिलहाल उसकी सरकारें हैं, से पार्टी के लिए अच्छे संकेत नहीं है। पार्टी की सरकारें देश के सात फीसद हिस्से में सिमट चुकी है। उधर भाजपा की 2014 के चुनाव के पहले पांच राज्यों में अपनी और पंजाब में अकाली के साथ साझा सरकार थी। फिलहाल उसके पास अपनी पार्टी की तेरह राज्यों में सरकार हैं। पंजाब हाथ से निकला लेकिन जम्मू-कश्मीर में पीडीपी और आंध्र में उसे तेलगु देशम का साथ है। बिहार में बुरी तरह हार कर भी भाजपा सरकार में हैं। 1984 के बाद कांग्रेस को लोकसभा में कभी पूर्ण बहुमत नहीं मिला। पर पार्टी इस हैसियत में रही कि घटक दलों ने उसकी अगुवाई को कुबूल किया। 1996 की अल्पजीवी सयुंक्त मोर्चा सरकार भी उसी के समर्थन तक टिकी। 2017 में कांग्रेस इस स्थिति में नहीं है कि गैर भाजपाई दलों को अपनी शर्तों पर चुनाव पूर्व गठबंधन के लिए आकर्षित कर सके। आपसी बातचीत में उनकी पार्टी के लोग भी राहुल को नाकाफी मानते हैं। उन्हें लगता है कि अगर प्रियंका आगे आएं तो बात कुछ बन सकती है। पर ऊहापोह में प्रियंका अपना सर्वोत्तम समय गंवा चुकी हैं। हर चुनाव में उनके आगे आने की बातें आती हैं और फिर अगले चुनाव के लिए ठंडी हो जाती है। राहुल पार्टी का चेहरा हैं। एक पल वे खूब सक्रिय दिखेंगे। पार्टी के कायाकल्प के लिए समर्पित। सरकार को चुनौती की हुंकार भरते। और फिर खामोश। जरूरी मौकों पर वे अदृश्य हो जाते हैं। जब उनकी पार्टी को सबसे ज्यादा जरूरत होती है तब वे उपलब्ध नहीं होते। जिम्मेदारी संभालने की अपनी घोषणा और 2019 में सत्ता बदलने की लड़ाई की तैयारी के बीच क्या राहुल अपने को बदल चुके हैं। इसके लिए फिलहाल पहले उन्हें अपने समर्थकों को आश्वस्त करना है। वक्त कम है। एक बड़ी लेकिन कमजोर पार्टी की अगुवाई उस नायक के जिम्मे है जिसका रिकार्ड निराशाजनक है। जिस लोकसभा क्षेत्र की नुमाइंदगी उनके पास है, वहां की पांच विधानसभा सीटों में उनका एक भी विधायक नहीं है। जिस राज्य उत्तर प्रदेश से देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री मिले। जहां से उनका पांच पीढ़ी का नाता है। वहां उनके कुल दो सांसद हैं। वे भी खुद और पार्टी अध्यक्ष उनकी माँ सोनिया जी। इसी उत्तर प्रदेश की विधानसभा में वे अपने कुल सात विधायक भेज सके हैं। राज्य से संसद और विधानसभा में उनकी सदस्य संख्या जोड़ देने पर भी दहाई की गिनती नहीं बनी। क्या इन बुरे हालात में भी बेहतर नतीजों की उम्मीद की जा सकती है ? यदि हां तो क्या सिर्फ अपनी ताकत के भरोसे ? छप्पन इंच का सीना फुलाने में अपनी मेहनत-ताकत से ज्यादा तब की सरकार के खिलाफ जनता का गुस्सा मददगार हुआ था। तो क्या राहुल सिर्फ इसी भरोसे बाजी पलटने का इंतजार करेंगे ?