---राजखन्ना, वरिष्ठ पत्रकार।
सत्ता से बेदखल राहुल अमेठी में चुनौतियों से दो-चार हैं तो बगल सुल्तानपुर में दूसरे गांधी सत्ताधारी पार्टी में बेगाने जैसे हैं। मोदी-अमित शाह से असहज रिश्तों के चलते सुल्तानपुर के सांसद वरुण गांधी पार्टी में हाशिए पर हैं। 2014 में जब वरुण पीलीभीत छोड़ सुल्तानपुर आए थे तो लगा था कि वे उस अमेठी की ओर बढ़ रहे हैं, जिससे परिवार के रिश्ते उनके स्वर्गीय पिता संजय गांधी ने जोड़े थे। उनकी मां मेनका गांधी ने इस विरासत की असफल लड़ाई अपने जेठ से लड़ी थी। अगल-बगल की सीटों पर परस्पर विरोधी खेमों के गांधियों की मौजूदगी में गांधी बनाम गांधी के टकराव की उम्मीद करने वालों को दोनों ने ही मुस्कुराने का मौका नहीं दिया।
दिलचस्प है कि राहुल-वरुण भले परस्पर विरोधी खेमे में हों लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर उनकी सोच में समानता के सूत्र खोजे जा सकते हैं। अगर राहुल विपक्षी मोदी पर मुखर हमले का कोई मौका नहीं छोड़ते तो वरुण भाजपा में रहते मोदी और उनकी सरकार की उपलब्धियों पर मौन रह कर अपनी दूरी दर्शाते हैं। लोकसभा चुनाव के मौके पर भी वरुण ने अपने संसदीय क्षेत्र की अमहट हवाई पट्टी पर अमेठी जाने के लिए उतरे मोदी से भेंट के लिए रुकना जरूरी नहीं समझा था। वरुण के पूरे चुनाव प्रचार में मोदी चर्चा और उनकी हिमायत के नारे नहीं लगे। उनकी मौजूदगी में निर्वाचन क्षेत्र की सभाओं में मोदी-योगी के नाम-नारे और सरकारों का कोई जिक्र नहीं होता।
वरुण ने इसकी कीमत भी चुकाई है। अमित शाह ने महामंत्री पद और राष्ट्रीय कार्यकारिणी से छुट्टी कर सामान्य सांसदों की कतार में उन्हें लगा दिया। बिना पार्टी को विश्वास में लिए उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों के उनके दौरों पर नकेल कस दी गईं। विधानसभा चुनाव में पार्टी के स्टार प्रचारकों की लंबी सूची में उन्हें जगह नहीं दी गई। रूठे वरुण ने कहीं और जाने की बात दूर अपने संसदीय क्षेत्र की ओर भी इस चुनाव में रुख नहीं किया। बावजूद इसके क्षेत्र की पांच में चार सीटें पार्टी जीत गई। फिलहाल सांसद और विधायकों के बीच कामकाजी संवाद भी है, इसमें लोगों को शक है। पार्टी और उसकी सरकारों से खिंचाव के चलते एक सांसद के रूप में वरुण अपने क्षेत्र को कुछ उल्लेखनीय नहीं दिला पाते। स्थानीय दौरों और जनसंपर्क के लिए उनके पास अपना तंत्र है। उनके कार्यक्रमों में स्थानीय नेताओं और कार्यकर्त्ताओं की हिस्सेदारी प्रतीकात्मक होती है। सांसद के रूप में उनके वेतन का पूरा पैसा क्षेत्र के जरूरतमंदों पर खर्च होता है। वे अन्य सांसदों से भी ऐसा करने की अपील करते रहते हैं। वे अपने श्रोतों से धन जुटा कर गरीबों की मदद करते हैं। सांसद निधि का बेहतर इस्तेमाल करते हैं। उनका दफ्तर लोगों की फरियादों को वरुण की सिफारिशी चिट्ठियों के जरिए संबंधित लोगों तक पहुंचाता है। पर उनका जनसंपर्क लगभग एकतरफा होता है। उनसे संवाद आसान नहीं, क्योंकि उनके दौरे संक्षिप्त होते हैं। सुनने का धैर्य भी कम है। सभाओं में पहुंचते ही सीधे माइक थामते हैं और कार्यकर्त्ताओं से भी घुलते-मिलते नहीं। चर्चित नाम और सत्ता दल से जुड़ाव के कारण उनके जरिए सुल्तानपुर के लिए बड़ी उम्मीदें करने वाले साढ़े तीन वर्षों में उनसे निराश हो चुके हैं। नेतृत्व से उनके तल्ख़ रिश्तों की वजह से अधिकांश स्थानीय नेता उनके नजदीक नहीं दिखना चाहते। उनके अगले कदम को लेकर अटकलें लगती रहती हैं। टिकट के कुछ दावेदारों ने तो अपनी होर्डिंग्स लगवानी भी शुरू कर दी हैं।