--- राज खन्ना, वरिष्ठ पत्रकार।
डाक्टर धर्मपाल सिंह अपनी हर भूमिका में कुछ अलग नजर आते हैं। एक मेधावी छात्र के रूप में अपने साथियों की सहायता करते। किशोरावस्था से ही दूसरों का दुःख-दर्द बांटते। पढ़ाई के साथ ही खिलाड़ी के रूप में कभी न पिछड़ने का हौसला लेते-देते। एक शिक्षक के रूप में अध्ययन-अध्यापन के प्रति समर्पण तो योग साधना के जरिए ज्ञान-चेतना-साधना के पाठ पढ़ते। और इन सबसे बढ़कर वे एक अच्छे इंसान हैं। उनकी पुस्तक ' ए जरनी थ्रू द लाइफ डिवाइन' के विमोचन अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार राज खन्ना की लेखनी से उनका शब्द चित्र ... उफनती गोमती की विकराल बाढ़ बीच वे तीन किलोमीटर तैरे। गोमती किनारे बसे अपने गांव संडाव से मायंग तक। सही ठिकाने पहुंचे। मदद के लिए फौज की वहां टुकड़ी तैनात थी। कर्नल ने उन्हें पचास रुपए इनाम में दिए।
वे नहीं लेना चाहते थे। तेज बहाव के थपेड़ों को ठेंगा दिखाने वाला आठवीं क्लास का बालक अपने दुस्साहस (!) के एवज में घर पर थप्पड़ों की संभावना को लेकर फिक्रमंद हो चला था। कर्नल ने आश्वस्त किया। कंधे थपथपाए। वापसी में मोटरबोट थी, जिसके लिए वे बाढ़ से बेपरवाह लंबी दूरी तैरे थे। यह साहस प्रदर्शन किशोरावस्था की किसी शेखी-शर्त का हिस्सा नहीं था। गांव की एक गर्भवती बीमार महिला की पीड़ा के आंसुओं ने बेचैन बालक को गोमती के पसरे आंचल में उतार दिया था। यह वाकया 1971 का है।बीच में 46 साल का लंबा कालखंड। नदी की धारा अब उनके गांव से लगभग एक किलोमीटर दूर चली गई है। गोमती न जाने कितना पानी बहा ली गई। पर धर्मपाल सिंह का कच्ची उम्र का सेवा संकल्प अविचल पूरा-पूरा जवान है । वे वैसे ही व्यग्र-बेचैन हैं। दूसरों की तकलीफों को लेकर। उनकी मदद के लिए। वैसे ही सोचते। वैसे ही करते हैं। अब दूसरी पारी है। पर डाक्टर धर्मपाल सिंह ऊर्जा-उत्साह से भरे-पूरे हैं। अवध विश्विद्यालय के गनपत सहाय पीजी कालेज से चंद महीनो पहले अंग्रेजी के एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में रिटायर हुए। लगा कि बंदिशों से आजाद हुए। अब पूरा अवसर है। दूसरों के लिए कुछ करने का। उनसे जुड़ने का। उनकी तकलीफें कुछ कम करने की। उनकी खुशियों में शिरकत का। वह सफर जो कच्ची उम्र में शुरू हुआ। जो कभी नहीं थमा। उसे और गति देने का। नौवें क्लास की पढ़ाई के दौरान वे अपने से कमजोर या फिर छोटे क्लास के जरूरतमंद बच्चों को पढ़ाते थे। इंटर की पढ़ाई में मेधावी छात्र के नाते उन्हें मिले वजीफे ने किसी जरूरतमंद साथी की पढ़ाई छूटना रोका। और फिर जब पढ़ाई ही कमाई का जरिया बनी तो ये दोनों ही बहुत से जरूरतमंदों के काम आई। अब भी आ रही है।
पढ़ाई में तेज धर्मपाल सिंह शुरुआती दौर में शरीर से कमजोर थे। पीबी इंटर कालेज कुड़वार के खेल मैदान में जब वे पहुंचे तो लोकप्रिय खेल शिक्षक स्वर्गीय नरेंद्र बहादुर सिंह उन्हें लेकर फिक्रमंद थे। लेकिन जल्दी ही उनकी राय बदली। हैमर थ्रो और 100 मीटर की फ्री स्टाइल तैराकी इवेंट में उन्होंने प्रदेश में स्थान बनाया। साकेत पीजी कालेज में एथलीट टीम की कप्तानी की। चार दशक से ज्यादा वक्त के अंतराल पर उनका मानना है कि खेलों ने उन्हें बदला। बहुत कुछ दिया। मनोबल बढ़ाया। आत्मविश्वास दिया। कभी न थकना। और संघर्ष से न पिछड़ना सिखाया। इस मिथ को तोड़ा कि खेल पढ़ाई की तरक्की में बाधक है। दो दशक खूब खेले। उसी बीच हठयोगी पंडित राम लगन तिवारी से योग सीखा। योग ने ज्ञान-साधना-चेतना के नए कपाट खोले। जीवन शैली बदल डाली। सोच को विस्तार दिया। एक नई दृष्टि दी। दूसरों की मदद के लिए दौड़ने की बचपन की आदतें वक्त के साथ और पुख्ता होती गईं।
वे छोटी होती जा रही उस जमात में शामिल हैं जो बोलने-करने के बीच का अंतर पाटती है। पोथियां पढ़ते-पढ़ाते हैं लेकिन कोशिश में रहते हैं कि वे पढ़ाई दूसरों के काम आए। आचरण में भी उतरे। नौकरी के दौरान भी और बाद भी। हमेशा पढ़ने के इच्छुक बच्चों को सिर्फ मुफ्त पढ़ाने नहीं उनकी पढ़ाई के संसाधन मुहैय्या करने को भी तैयार। कालेज में उनके क्लास हमेशा वक्त से शुरू हुए। जो पढ़ने को तैयार रहे उनके लिए क्लास से पहले भी और बाद भी उनके पास कभी वक्त की कमी नहीं रही। पांच साल से सेवा-सहयोग के कार्यक्रमों को संस्थागत रूप दिया। लोकसरोकार समिति गठित की। सहयोग-विचार विनिमय का जीवंत साझा मंच। जीवन के विविध क्षेत्रों के अग्रणीजन जो कुछ अच्छा सिर्फ सोचते भर नहीं। कुछ करना चाहते हैं। उनको जोड़ा। तब से अपने सेवा-समर्पण का पूरा श्रेय समिति को दे दिया। गांव संडाव को गोद लिया। वहां के पीड़ितों-वंचितों के हर दुःख-दर्द में साथ। विधवा सरोज कुमारी के परिवार का 2012 से समिति व्यय वहन कर रही है। दर्जन भर गरीबों के घर जले तो उन्हें छत मुहैय्या की। किसी की दवा हुई तो किसी का आपरेशन। गर्मी-जाड़े में कपड़े। हर रविवार गांव में धर्मपाल सिंह की कक्षा लगती है। राम दुलारी शारदा प्रसाद इंद्र भद्र सिंह पीजी कालेज, मंझवारा, वेद वेदांग विद्यापीठ गुरुकुलाश्रम, दयानंद नगर और राजा राम सरस्वती विद्यामंदिर नरायनपुर में भी वे हफ्ते में एक दिन पढ़ाते हैं। नौकरी में कभी अपनी क्लास लेने में नहीं चूके। निःशुल्क क्लास भी कभी नहीं छूटती। 2015 में जयसिंहपुर तहसील के निर्धन लेकिन मेधावी छात्र कुलदीप निषाद को समिति ने गोद लिया। उसका पूरा व्यय तब से वहन किया जा रहा है। ये बानगी है। फेहरिस्त लंबी है। पर मदद की उनकी भी शर्तें हैं। पढ़िए तो परीक्षा के लिए तैयार रहिए। समय खूब लीजिए पर नतीजे दीजिए। सिर्फ सेवा लेने नहीं, मौका आए तो सेवा को भी तैयार रहिए। कुछ न दे पाइए तो जरूरत पर पड़ोसी को एक बाल्टी पानी ही पहुंचा दीजिए।
अंग्रेजी पढ़ाने की उन्होंने नौकरी की। पर मन रमता है, वेदों-उपनिषदों और गीता में। उसी में खुद को खोजते हैं और उसी के आलोक में मानव जीवन की गुत्थियों को सुलझाने का जतन करते हैं। उन्हें स्कूली पढ़ाई में पढ़ा डाक्टर राधाकृष्णन का परस्परता-एकजुटता का संदेश देता ‘भारतीय संस्कृति की विशेषता’ पाठ हमेशा प्रेरित करता रहा। वे उस चेतनशील समाज का सपना देखते हैं जिसमें घृणा-वैमनस्य-पाखंड का कोई स्थान नहीं। दया-प्रेम-करुणा-सेवा-सहयोग-सहकार जैसे मानव मूल्यों को मंचीय लफ्फाजी नहीं, वे तो उन्हें जीवन में उतारते नजर आते हैं। 2011 में डाक्टर जेपी सिंह के जरिए अरविंद सोसाइटी से जुड़े। श्री अरविंद की साधना का निचोड़ है ‘द लाइफ डिवाइन।’ जीवन की उत्पत्ति, उद्देश्य और सृष्टि का संचरण सब इसमें समाहित है। पर बेहद दुरूह और क्लिष्ट। डाक्टर धर्मपाल सिंह ने अपनी पुस्तक ‘ए जरनी थ्रू द लाइफ डिवाइन’ के जरिए श्री अरविंद के दर्शन-संदेश को बोधगम्य बनाने का प्रयास किया है। समकालीन संदर्भों के जरिए और आंतरिक अनुभूतियों की सहायता से। उनके व्यक्तित्व के रंग अनूठे हैं। योग साधना से लेकर साहित्य, दर्शन और आध्यात्म तक को समझते-समझाते अंग्रेजी के आचार्य धर्मपाल सिंह दूसरे-तीसरे क्लास के बच्चों को पढ़ाते उतने ही सहज-सरल हैं। कोई अहम आड़े नहीं आता। कभी मिलिए। साथ बैठिए। बुलाइए। खुद आ जाएंगे। समय ले या देकर न भूलिएगा। किसी की सहायता का वायदा करके भी न भूलिएगा। वे नहीं भूलते। बेलाग भी हैं। बेलौस भी। जिनके वचन-कर्म एक होते हैं। वह ऐसे ही होते हैं। डाक्टर धर्मपाल सिंह जैसे !