--विजया पाठक
एडिटर - जगत विजन
भोपाल - मध्यप्रदेश, इंडिया इनसाइड न्यूज।
■लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर बढ़ते प्रहार
■पत्रकार आनंद पांडे और हरीश दिवेकर की गिरफ्तारी के मायने क्या?
भारतीय लोकतंत्र की आत्मा उसकी संस्थाओं में निहित है। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका ये तीन स्तंभ लोकतांत्रिक ढांचे की नींव हैं, परंतु इन स्तंभों के साथ पत्रकारिता को चौथा स्तंभ कहा गया है, जिसने सदैव समाज की नब्ज़ टटोलने और सत्ता को आईना दिखाने का कार्य किया है। परंतु, विडंबना यह है कि आज वही चौथा स्तंभ लगातार हमलों और दमन के दौर से गुजर रहा है। पिछले एक दशक में मीडिया की स्वतंत्रता पर जो प्रहार हुए हैं, वे यह दर्शाते हैं कि सत्ता के गलियारों में कलम की ताकत से भय व्याप्त है। जहां भी पत्रकारिता ने सत्ताधारी वर्ग के भ्रष्टाचार, कदाचार या दोहरे चरित्र को उजागर किया है, वहां सत्ता ने अपनी पूरी ताकत से उसे दबाने का प्रयास किया है। मध्यप्रदेश में हाल की घटना इसका ताजा उदाहरण है, जब वरिष्ठ पत्रकार आनंद पांडे और हरीश दिवेकर को राजस्थान पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। इन दोनों पत्रकारों ने राजस्थान की उपमुख्यमंत्री दीया कुमारी से जुड़े कथित भ्रष्टाचार के मामलों का खुलासा किया था। सत्ता की असहजता इतनी बढ़ी कि पत्रकारों को गिरफ्तार करने जैसे कदम उठा लिए गए। यह न केवल लोकतंत्र पर धब्बा है, बल्कि पत्रकारिता की स्वतंत्रता का अपमान भी है। राजनीति का यह नया चेहरा बेहद चिंताजनक है। हालांकि लगभग 6 घंटे की पूछताछ के बाद दोनों पत्रकारों को राजस्थान पुलिस ने छोड़ दिया।
● पत्रकारिता प्रहरी है, उसे कुचलना लोकतंत्र के हित में नहीं
राजस्थान की यह घटना कोई अलग मामला नहीं है। चाहे दिल्ली, मध्यप्रदेश या राजस्थान हर जगह सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेता पत्रकारों की कलम से घबराए दिखाई देते हैं। पत्रकारों पर मुकदमे, गिरफ्तारी और धमकी अब सामान्य राजनीतिक हथियार बन चुके हैं। यह प्रवृत्ति न केवल मीडिया की आज़ादी को सीमित कर रही है, बल्कि जनता के उस अधिकार को भी छीन रही है जिसके तहत उसे सच जानने का हक है। पत्रकारिता का उद्देश्य हमेशा सत्ता के निर्णयों पर प्रश्न उठाना रहा है। यही प्रश्न लोकतंत्र को संतुलित रखता है। परंतु जब सवाल करने वाला ही सलाखों के पीछे भेज दिया जाए, तो इसका अर्थ साफ है सत्ता अब जवाबदेही से बचना चाहती है। यह स्थिति केवल विपक्ष या किसी एक पार्टी के खिलाफ नहीं, बल्कि लोकतंत्र की पूरी प्रणाली के लिए खतरनाक है। लोकतंत्र में पत्रकार की भूमिका प्रहरी की होती है, जो जनता और सरकार के बीच सेतु का काम करता है। पर जब प्रहरी की आँखों पर ही पट्टी बांध दी जाए, तो व्यवस्था अंधी हो जाती है। दुर्भाग्य से, आज सत्ता में बैठे लोगों को मीडिया का “नियंत्रित संस्करण” चाहिए जो वही कहे, जो वे सुनना चाहते हैं। ऐसे दौर में स्वतंत्र पत्रकारिता किसी क्रांतिकारी कदम से कम नहीं रह गई है। पांडे और दिवेकर जैसे पत्रकारों ने जब सत्ता की परतें खोलनी शुरू कीं, तो उनके खिलाफ कार्रवाई इस बात का प्रमाण है कि सच अब सत्ता के लिए असुविधाजनक हो चुका है। राजनीतिक दृष्टि से देखें तो यह प्रवृत्ति दोहरी है। जब सत्ता में कोई पार्टी होती है, तो वह मीडिया की स्वतंत्रता पर लगाम कसती है और जब वही पार्टी विपक्ष में जाती है तो वही मीडिया “लोकतंत्र की आत्मा” बन जाती है। यह दोहरा चरित्र भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा संकट है।
● क्या पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर प्रहार अब सामान्यीकृत हो चुका?
सवाल यह भी उठता है कि सुप्रीम कोर्ट और अन्य संवैधानिक संस्थाएं इस पर मौन क्यों हैं? क्या पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर प्रहार अब सामान्यीकृत हो चुका है? यदि संविधान का अनुच्छेद 19(1)(ए) नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है, तो फिर पत्रकारों को इस अधिकार से वंचित करना न केवल असंवैधानिक बल्कि अमानवीय भी है। इतिहास गवाह है कि जब-जब सत्ता ने कलम को कैद करने का प्रयास किया है, तब-तब सत्य और विचार की ताकत और अधिक प्रखर होकर उभरी है। हर युग में सत्ता ने कलम को झुकाने की कोशिश की, परंतु कलम हर बार और तेज़ी से उठी है। छत्तीसगढ़ में भी ऐसा ही हुआ, जब तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अपने आलोचकों को डराने-धमकाने का प्रयास किया। मैंने भी महादेव सटटा ऐप को उजागर किया और इसके बदले कई बार छत्तीसगढ़ की पुलिस मुझे गिरफ्तार करने भोपाल आयी। छग के पत्रकार सुनील नामदेव को भी काफी प्रताडि़त किया। मप्र में भी पिछले कुछ दिनों में भ्रष्टाचार को उजागर करने के मामलों में करीब 08 पत्रकारों को गिरफ्तार किया। लेकिन जनता ने तय किया कि भ्रष्टाचार और दमन की राजनीति को जवाब देना है। यही लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबसूरती है जब जनता ही न्यायाधीश बन जाती है। आज आवश्यकता है कि पत्रकारिता को “देशद्रोह” या “मानहानि” की परिभाषा में बांधने की जगह उसे लोकतंत्र की आत्मा के रूप में सम्मान दिया जाए। लोकतंत्र तभी स्वस्थ रह सकता है जब हर पत्रकार बिना भय के सच कह सके, हर नागरिक सवाल पूछ सके और हर सत्ता जवाब देने को बाध्य हो। पत्रकारिता को दबाने के प्रयास, चाहे वे किसी भी सरकार द्वारा किए जाएं, अंततः उसी सरकार की साख को कमजोर करते हैं। यह भूलना नहीं चाहिए कि कलम तलवार से अधिक शक्तिशाली होती है और जब कलम जनता के पक्ष में चलती है, तो कोई सत्ता उसे रोक नहीं सकती। लोकतंत्र की रक्षा तभी संभव है जब कलम स्वतंत्र रहे। आनंद पांडे और हरीश दिवेकर की गिरफ्तारी जैसे उदाहरण हमें चेताते हैं कि यदि आज हमने इस अन्याय के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाई, तो कल यह प्रहार हर उस नागरिक पर होगा जो सच बोलने का साहस रखता है। इसलिए अब समय आ गया है कि देश की संवैधानिक संस्थाएं आगे आएं, पत्रकारिता की गरिमा और स्वतंत्रता की रक्षा करें क्योंकि जब चौथा स्तंभ डगमगाता है, तो पूरा लोकतांत्रिक ढांचा हिल जाता है। सत्ता के इस भयभीत व्यवहार को रोकना अब आवश्यक है। पत्रकारिता का दमन किसी पार्टी या व्यक्ति पर नहीं, बल्कि पूरे लोकतंत्र पर हमला है।