गुलजार को मंडित करके विद्यापीठ ऊंचा हो गया!



--के• विक्रम राव
अध्यक्ष - इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स।

मुकफ्फा (अनुप्रास) विधा के लिए मशहूर सिख शायर, पाकिस्तान से भारत आए, एक बंगभाषिनी अदाकारा राखी के पति सरदार संपूरण सिंह कालरा उर्फ गुलजार को प्रतिष्ठित पुरस्कार देकर श्रेष्ठ संस्था भारतीय ज्ञानपीठ ने हर कलाप्रेमी को गौरवान्वित किया है। भारतीयों को इस पर नाज है। वस्तुतः हर पुरस्कार गुलजार के पास आते ही श्रेयस्कर हो जाता है। उन्हें 2004 में पद्मभूषण मिला था। सरदार मनमोहन सिंह तब प्रधानमंत्री थे। हॉलीवुड ने उन्हें ऑस्कर से नवाजा डैनी बॉयल निर्देशित फ़िल्म "स्लमडॉग मिलियोनियर" के गीत "जय हो" पर। ग्रैमी मिला सो अलग। दादा साहब फाल्के पुरस्कार, अन्य पांच राष्ट्रीय फिल्म अवार्ड आदि भी। गुलजार अब पुरस्कारों से कहीं ऊपर चले गए। बॉलीवुड और हॉलीवुड पीछे छूट गए। क्यों? नजरिया जो उनका भिन्न रहता है। चांद को लोगों ने अलग-अलग रूप से निहारा, समझा, पेश किया। गुलजार ने उसे महबूब के प्रतीक से हटाकर, रोटी बना दिया। खिलौना, नाव, दोस्त, रहगुजर बना डाला।

गुलजार जाने जाते हैं उनकी "त्रिवेणी" रचनाओं के लिए जहां तीसरी लाइन पद्य को नया आयाम, नूतन मायने दे देता है। यह गैरमुकफ्फा गीत है। अपने प्रतिमानों को खुद तोड़ने वाले गुलजार ही वे रचनाकार हैं जिन्होंने हिंदी और उर्दू का संगम बना दिया। अंतर मिटा दिया। भाषा बोलचालवाली बना दी।

गुलजार को गालिब की शायरी से, उर्दू अदब से, लगाव हुआ, लेकिन प्यार बंगला भाषा से ही था। आरंभ से ही गुलजार बंगला साहित्य के दीवाने थे। विभाजन के बाद गुलजार दिल्ली आ गए, जहां उन्होंने अपने जीवन के कुछ महत्वपूर्ण साल गुजारे।

उतार चढ़ाव जीवन में न आए, तो वह सपाट, नीरस और बेमायने हो जाता है। एकदा इस ज्ञानपीठ विजेता ने रोजी के लिए मोटर गैराज में काम किया था। एक्सीडेंट वाले कारों का डेंट निकालते। उन पर पेंट किया करते थे। लेकिन ये उनका पसंदीदा काम नहीं था। उनका मन तो किताबें पढ़ने में लगता था। इब्ने सफी, शरत चंद्र चट्टोपाध्याय, बंकिमचंद्र चटर्जी हों या फिर रवींद्र नाथ टेगौर, इन सबके वे दीवाने थे। गुलजार को जब भी गैराज के काम से समय मिलता तो नॉवेल पढ़ते। रवींद्रनाथ टेगौर के साहित्य के तो गुलजार मुरीद थे।

गुलजार के जीवन की वह घटना याद करें जिसने उनको सारा बदल ही डाला। सन 1963 की बात है। प्रसिद्ध निर्माता, निर्देशक बिमल रॉय एक फिल्म बना रहे थे। नाम ‘बंदिनी’ था। बिमल रॉय की किसी बात को लेकर गीतकार शैलेंद्र से अनबन हो गई। गुलजार की प्रतिभा को शैलेंद्र ने आंक लिया था। एक दिन शैलेंद्र ने गुलजार को बिमल रॉय से मिलने के लिए कहा। गुलजार जब बिमल रॉय के ऑफिस पहुंचे तो बिमल राय ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया। लेकिन जब गीत लिखकर दिया तो वे दंग रह गए। गुलजार की प्रतिभा से वे इतने प्रभावित हुए कि गुलजार से पूछा क्या करते हो ? तब गुलजार ने कहा वे मोटर गैराज में काम करते हैं।

इस पर बिमल रॉय ने कहा : "वहां जाने की कोई जरुरत नहीं है, गैराज में जाकर अपना समय खराब मत करो।" बंदिनी में उनका लिखा गीत “मोरा गोरा अंग लइ ले, मोहे श्याम रंग दइ दे” बेहद मशहूर हुआ। इसके बाद गुलजार ने पीछे मुडकर नहीं देखा। बीते चार दशक से गुलजार की कलम सक्रिय है।

हाल ही में (11 फरवरी 2024) को गुलजार साहब से मुंबई में भेंट हुई थी। अंधेरी में एक संस्था चौपाल द्वारा डॉ. पुष्पा भारती को केके बिडला सम्मान मिलने पर आयोजित समारोह था। वहाँ गुलजार साहब से मिला था। वाह क्या सादगी दिखी। विश्वास हो गया कि ज्ञानपीठ ने स्वयं को इज्जत बख्शी है, गुलजार को पुरस्कृत कर। दोनों को सलाम। जिंदाबाद गुलजार साहब।

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