--प्रदीप फुटेला,
रुड़की-उत्तराखंड, इंडिया इनसाइड न्यूज़।
प्रशान्त अद्वैत फाउंडेशन के संस्थापक एवं पूर्व सिविल सेवा अधिकारी आचार्य प्रशान्त ने कहा है कि जिंदगी एक जंग है कोई भी इस जंग से अछूता नही है मनुष्य पैदा ही ऐसा हुआ है लेकिन हमें उस जंग से लड़ते हुए निडरता से आगे कैसे बढ़ना है उसके लिए एक ही सूत्र है अपने आप को सही काम में झोंक दो अन्यथा हर समय डरे सहमे हुए अनुभव करते रहोगे।
आईआईटी रुड़की के एमएसी ऑडिटोरियम में संस्कृत क्लब ने निडर जीवन पर एक कार्यशाला का आयोजन किया था जिसमे व्याख्यान देने हेतु पहुंचे प्रशान्त अद्वैत फाउंडेशन के संस्थापक ,वेदान्त मर्मज्ञ एवम पूर्व सिविल सेवा अधिकारी आचार्य प्रशान्त ने छात्रों व शिक्षको द्वारा पूछे गए सवालों का जबाब दिया। आचार्य प्रशान्त ने छात्रों से पूछा कि कितने लोग हैं जो कभी-कभी या अक्सर डर का अनुभव करते हैं? कृपया अपने हाथ उठाएँ। करीब-करीब सभी अपने हाथ उठा लेते हैं। आचार्य प्रशान्त ने कहा कि शायद ही कोई ऐसा हो जो डर से अछूता हो। ये डर है क्या? इसे बड़े ध्यान से समझिए। सैकड़ों की भीड़ के आगे बोलने में हममें से ज़्यादातर लोगों को डर या हिचक की अनुभूति होती ही है। पर ठीक अभी जब वो बोल रहा है, तब डर नहीं है, इससे पहले डर लग रहा था। इससे पहले क्या वह बोल रहा था? नही वह सिर्फ सोच रहा था तो डर किसमें है सोचने में या बोलने में तो आपने स्वयं ही पता कर लिया। बिल्कुल निजी खोज है ये आपकी अभी-अभी कि डर सिर्फ़ एक विचार है। डर करने में नहीं, डर करने के विषय में सोचने में है। जब कर्म हो रहा होता है, जब आप गहराई से कर्म में उतरे हुए होते हैं, तब डर महसूस नहीं हो रहा होता है। हममें से ज़्यादातर लोगों को भ्रम यही है कि मुझे ये काम करने में डर लगता है। “मुझे बोलने में डर लगता है, मुझे कहीं जाने में डर लगता है, मुझे लिखने में डर लगता है।” याद रखिएगा, डर न बोलने में है, न कहीं जाने में और न ही लिखने में; डर है उस विषय के बारे में सोचने में। डर सिर्फ़ एक विचार है, उसकी कोई वास्तविकता नहीं है। डर एक विचार है और जितना इस विचार को गहरा उतरने देंगे, डर उतना ही लगेगा। सब लोग गहराई से जान ले, “डर सिर्फ़ एक विचार है।”
आचार्य प्रशान्त ने कहा कि दूसरी बात लिखने से पहले उसे समझेंगे। ये जो विचार है, जिसको हम नाम देते हैं ‘डर’, ये विचार क्या कहता है? ये विचार कहता है कि कुछ खो सकता है, कुछ नुकसान हो सकता है। ये विचार यह है कि मुझमें कुछ कमी आ सकती है, हानि का विचार है यह।
तो पहली बात हमने लिखी कि डर मात्र एक विचार है और दूसरी बात हम लिखेंगे कि ये विचार कहता है कि कुछ खो सकता है। अब हम देखेंगे कि ये जो कुछ है, ये क्या है। कुछ खो सकता है, क्या खो सकता है? क्या तुम बोलने में घबराते अगर ये हॉल पूरी तरह खाली होता? क्या कोई भी ऐसा होता है जो अकेले कमरे में बैठे हुए भी बोलने से घबराता हो? कोई उसे सुन नहीं रहा, किसी से उसे बात करनी नहीं है, पर तब भी घबराता हो अपनी ही आवाज सुनने में? तो बोलने का विचार घबराहट नहीं देता है, दूसरों के सामने बोलने का विचार घबराहट देता है। बोलने में शायद कोई बड़ी बात नहीं है, कोई भयावहता नहीं है उसमें, पर दूसरों के सामने बोलने में बड़ा ख़ौफ़ है। तो डर बोलने का हुआ या डर दूसरों का हुआ?
उन्होंने कहा कि हमने जो दूसरा बिंदु अभी-अभी लिखा, वो था कि डर का विचार यह है कि कुछ खो सकता है, कि मेरा कुछ नुकसान हो सकता है, कुछ हानि हो सकती है। इस बात को हम इस तीसरे बिंदु से जोड़ेंगे और फ़िर देखेंगे कि क्या निकलकर आता है।
निश्चित रूप से अगर डर लगता है दूसरों के सामने, तो जो हमें खोना है, उसका संबंध भी दूसरों से है। डर मुझे यही है न कि मेरा कुछ चला जाएगा, और साथ-ही-साथ दूसरों के सामने बोलने से डर है, तो निश्चित रूप से मुझे जो खो जाने का डर है, वो मुझे दूसरों से ही मिला है; क्योंकि जो दूसरों से मिला है, वो ही दूसरे ले भी जा सकते हैं। क्या है जो मुझे दूसरों ने दिया है और जिसके खो जाने का डर है मुझे? इज्जत, सम्मान, पहचान। इज्ज़त तो ठीक ही कहा, पर पहचान बहुत बड़ी चीज़ है, बहुत बड़ा वृत्त है, जिसमें इज्ज़त के अलावा भी बहुत कुछ आ जाता है।
पहचान का मतलब है, मैं हूँ कौन, मेरा होना, मेरी जो पूरी छवि है मेरी दृष्टि में। मुझे यही दूसरों ने दी है, और यही है जिसके खो जाने का बड़ा डर लगता है; क्योंकि उसमें मेरा तो कुछ है ही नहीं। दूसरों ने दिया है और मैंने उसको ऐसे पकड़ लिया है जैसे कि वो मेरा अपना ही हो। मैं निर्भर हूँ, आश्रित हूँ दूसरों पर। दूसरों ने मुझे सम्मान दिया है और दूसरे वो सम्मान छीन भी सकते हैं। वो कभी भी खो सकता है। दूसरों ने दी है पहचान।
आपकी अपने बारे में जितनी धारणाएँ हैं, छवियाँ हैं, वो दूसरों से आती हैं। और ये बड़ी गहरी ग़ुलामी है। हम बड़े आश्रित हैं। इन्हीं छवियों के, इन्हीं धारणाओं के, इसी मान-सम्मान के खो जाने का हमें बड़ा डर लगा रहता है। उन्होंने कहा कि जिसने उस समझ को आधार बना लिया जीवन का, अब वो कभी डरा हुआ नहीं रहेगा। और जो उसको आधार नहीं बनाएगा, वो कहेगा कि “मेरे जीवन के निर्णय कोई और कर दे मेरे लिए। समाज किसलिए है? शिक्षा किसलिए है? माँ-बाप किसलिए हैं? मुझे आगे क्या पढ़ना है, कोई और बता दे। मुझे कैसी नौकरी करनी है, कोई और बता दे। मुझे प्रेम किससे करना है, कोई और बता दे।” जो इन आधारों पर जीवन जिएगा, वो निरंतर डरा हुआ रहेगा।