मातृ दिवस: मां हैं प्रेम, संवेदना और मातृत्व की पराकाष्ठा



--रूना शर्मा,
संस्थापक, आर्ना फाउंडेशन (महिला अधिकारों के लिए संघर्षरत)।

सम्पूर्ण मातृ-शक्ति को समर्पित एक महत्वपूर्ण दिवस है, जिसे मदर्स डे, मातृ दिवस या माताओं का दिन चाहे जिस नाम से पुकारें यह दिन सबके मन में विशेष स्थान लिये हुए है। पूरी जिंदगी भी समर्पित कर दी जाए तो मां के ऋण से उऋण नहीं हुआ जा सकता है। संतान के लालन-पालन के लिए हर दुख का सामना बिना किसी शिकायत के करने वाली मां के साथ बिताये दिन सभी के मन में आजीवन सुखद व मधुर स्मृति के रूप में सुरक्षित रहते हैं। भारतीय संस्कृति में मां के प्रति लोगों में अगाध श्रद्धा रही हैं, लेकिन आज आधुनिक दौर में जिस तरह से मदर्स डे मनाया जा रहा है, उसका इतिहास भारत में बहुत पुराना नहीं है। इसके बावजूद दो-तीन दशक से भी कम समय में भारत में मदर्स डे काफी तेजी से लोकप्रिय हो रहा है।

मातृ दिवस-समाज में माताओं के प्रभाव व सम्मान का उत्सव है। मां शब्द में संपूर्ण श्रृष्टि का बोध होता है। मां के शब्द में वह आत्मीयता एवं मिठास छिपी हुई होती है, जो अन्य किसी शब्दों में नहीं होती। मां नाम है संवेदना, भावना और अहसास का। मां के आगे सभी रिश्ते बौने पड़ जाते हैं। मातृत्व की छाया में मां न केवल अपने बच्चों को सहेजती है बल्कि आवश्यकता पड़ने पर उसका सहारा बन जाती है। समाज में मां के ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जिन्होंने अकेले ही अपने बच्चों की जिम्मेदारी निभाई। मातृ दिवस सभी माताओं का सम्मान करने के लिए मनाया जाता है। एक बच्चे की परवरिश करने में माताओं द्वारा सहन की जानें वालीं कठिनाइयों के लिये आभार व्यक्त करने के लिये यह दिन मनाया जाता है। कवि रॉबर्ट ब्राउनिंग ने मातृत्व को परिभाषित करते हुए कहा है- सभी प्रकार के प्रेम का आदि उद्गम स्थल मातृत्व है और प्रेम के सभी रूप इसी मातृत्व में समाहित हो जाते हैं। प्रेम गहन, अपूर्व अनुभूति है, पर शिशु के प्रति मां का प्रेम एक स्वर्गीय अनुभूति है।

‘मां’-इस लघु शब्द में प्रेम की विराटता-समग्रता निहित है। अणु-परमाणुओं को संगठित करके अनगिनत नक्षत्रों, लोक-लोकान्तरों, देव-दनुज-मनुज तथा कोटि-कोटि जीव प्रजातियों को मां ने ही जन्म दिया है। मां के अंदर प्रेम की पराकाष्ठा है या यूं कहें कि मां ही प्रेम की पराकाष्ठा है। प्रेम की यह चरमता केवल माताओं में ही नहीं, वरन् सभी मादा जीवों में देखने को मिलती है। अपने बच्चों के लिए भोजन न मिलने पर हवासिल (पेलिकन) नाम की जल-पक्षिनी अपना पेट चीर कर अपने बच्चों को अपना रक्त-मांस खिला-पिला देती है।

कितनी दयनीय बात है कि देश ने स्त्री की शक्ति के रूप में अवधारणा दी, जिसने पुराणों के पृष्ठों में देवताओं को 4 या 8 हाथ दिये किन्तु देवियों को 108 हाथ दिये, उसी ने स्त्रियों को पुरुषों से नीचा स्थान दिया और उन्हें वेद पढ़ने के अधिकार से वंचित कर दिया और सबसे शोचनीय बात यह है कि उन्हें चारदिवारी में बंद कर दिया। ‘मां’ को उसकी दैवी सम्मान दिलाना वर्तमान युग की सबसे बड़ी आवश्यकता में से एक है।

मां प्राण है, मां शक्ति है, मां ऊर्जा है, मां प्रेम, करुणा और ममता का पर्याय है। मां केवल जन्मदात्री ही नहीं जीवन निर्मात्री भी है। मां धरती पर जीवन के विकास का आधार है। मां ने ही अपने हाथों से इस दुनिया का ताना-बाना बुना है। सभ्यता के विकास क्रम में आदिमकाल से लेकर आधुनिककाल तक इंसानों के आकार-प्रकार में, रहन-सहन में, सोच-विचार, मस्तिष्क में लगातार बदलाव हुए। लेकिन मातृत्व के भाव में बदलाव नहीं आया। उस आदिमयुग में भी मां, मां ही थी। तब भी वह अपने बच्चों को जन्म देकर उनका पालन-पोषण करती थीं। उन्हें अपने अस्तित्व की रक्षा करना सिखाती थी। आज के इस आधुनिक युग में भी मां वैसी ही है। मां नहीं बदली। विक्टर ह्यूगो ने मां की महिमा इन शब्दों में व्यक्त की है कि एक माँ की गोद कोमलता से बनी रहती है और बच्चे उसमें आराम से सोते हैं।

मां को धरती पर विधाता की प्रतिनिधि कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। सच तो यह है कि मां विधाता से कहीं कम नहीं है। क्योंकि मां ने ही इस दुनिया को सिरजा और पाला-पोशा है। कण-कण में व्याप्त परमात्मा किसी को नजर आये न आए मां हर किसी को हर जगह नजर आती है। कहीं अण्डे सेती, तो कहीं अपने शावक को, छोने को, बछड़े को, बच्चे को दुलारती हुई नजर आती है। मां एक भाव है मातृत्व का, प्रेम और वात्सल्य का, त्याग का और यही भाव उसे विधाता बनाता है।

मां विधाता की रची इस दुनिया को फिर से, अपने ढंग से रचने वाली विधाता है। मां सपने बुनती है और यह दुनिया उसी के सपनों को जीती है और भोगती है। मां जीना सिखाती है। पहली किलकारी से लेकर आखिरी सांस तक मां अपनी संतान का साथ नहीं छोड़ती। मां पास रहे या न रहे मां का प्यार दुलार, मां के दिये संस्कार जीवन भर साथ रहते हैं। मां ही अपनी संतानों के भविष्य का निर्माण करती हैं। इसीलिए मां को प्रथम गुरु कहा गया है।

प्रथम गुरु के रूप में अपनी संतानों के भविष्य निर्माण में मां की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। मां कभी लोरियों में, कभी झिड़कियों में, कभी प्यार से तो कभी दुलार से बालमन में भावी जीवन के बीज बोती है। इसलिए यह आवश्यक है कि मातृत्व के भाव पर नारी मन के किसी दूसरे भाव का असर न आए। जैसाकि आज कन्याभ्रूणों की हत्या का जो सिलसिला बढ़ रहा है, वह नारी-शोषण का आधुनिक वैज्ञानिक रूप हैं तथा उसके लिए मातृत्व ही जिम्मेदार है। कन्याभ्रूणों की बढ़ती हुई हत्या एक ओर मनुष्य को नृशंस करार दे रही है, तो दूसरी ओर स्त्रियों की संख्या में भारी कमी मानविकी पर्यावरण में भारी असंतुलन उत्पन्न कर रही है। अन्तर्राष्ट्रीय मातृ-दिवस को मनाते हुए मातृ-महिमा पर छा रहे ऐसे अनेक धुंधलों को मिटाना जरूरी है, तभी इस दिवस की सार्थकता है।

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