गुजरात चुनाव परीक्षा आखिर किसकी



--- डा० नीलम महेंद्र।

“कोई भी व्यक्ति अपने द्वारा किए गए कार्यों से समाज में "नायक" अवश्य बन सकता है लेकिन वह "नेता" तभी बनता है जब उसकी राजनैतिक महत्वाकांक्षा को राजनैतिक सौदेबाजी का समर्थन मिलता है।“
गुजरात जैसे राज्य के विधानसभा चुनाव इस समय देश भर के लिए सबसे चर्चित और "हाँट मुद्दा" बने हुए है। कहा तो यहाँ तक जा रहा है कि इस बार के गुजरात चुनाव मोदी की अग्नि परीक्षा हैं।
लेकिन राहुल गाँधी राज्य में जिस प्रकार, जिग्नेश मेवानी, अल्पेश ठाकुर और हार्दिक पटेल के साथ मिलकर विकास को पागल करार देते हुए जाति आधारित राजनीति करने में लगे हैं उससे यह कहना गलत नहीं होगा कि असली परीक्षा मोदी की नहीं गुजरात के लोगों की है।
आखिर इन जैसे लोगों को नेता कौन बनाता है, राजनैतिक दल या फिर जनता?
देश पहले भी ऐसे ही जन आन्दोलनों से लालू और केजरीवाल जैसे नेताओं का निर्माण देख चुका है। इसलिए परीक्षा तो हर एक गुजराती की है कि वो अपना होने वाला नेता किसे चुनता है विकास के सहारे भारत को विश्व गुरु बनाने के लिए वोट मांगने वाले को या फिर जाति के आधार पर गुजराती समाज को बाँट कर किसी जिग्नेश, हार्दिक या फिर अल्पेश नाम की बैसाखियों के सहारे वोट मांगने वाले को।
परीक्षा गुजरात के उस व्यापारी वर्ग की है कि वो अपना वोट किसे देता है उसे जो पूरे देश में अन्तर्राज्यीय व्यापार और टैक्सेशन की प्रक्रिया को सुगम तथा सरल बनाने की कोशिश और सुधार करते हुए अपने काम के आधार पर वोट मांग रहा है या फिर उसे जिसने अभी तक देश में तो क्या अपने संसदीय क्षेत्र तक में इतने सालों तक कोई काम नहीं किया लेकिन अपने राजनैतिक प्रतिद्वन्दी द्वारा किए गए कामों में कमियाँ निकालते हुए समर्थन मांग रहे हैं।
परीक्षा तो उस पाटीदार समाज की भी है जिसका एक गौरवशाली अतीत रहा है, जो शुरू से ही मेहनत कश रहा है, जिसने देश को सरदार वल्लभ भाई पटेल, शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व क्रांति लाने वाले माननीय केशवभाई पटेल,लगातार 31 घंटों तक ड्रम बजाकर विश्व रिकॉर्ड बनाने वाली एक 23 वर्षीय युवती, सृष्टि पाटीदार , विश्व के मानचित्र पर देश का नाम ऊँचा करने वाली ऐसी ही अनेक विभूतियाँ देकर देश की प्रगति में अपना योगदान दिया है। लेकिन आज वो किसका साथ चुनते हैं, उसका जो उन्हें स्वावलंबी बनाकर आगे लेकर जाना चाहता है या फिर उसका जो उन्हें पिछड़ी जातियों में शामिल करने और आरक्षण के नाम पर एक हिंसक आन्दोलन का आगाज करते हुए कहता है "यह एक सामाजिक आंदोलन है जिसका राजनीति से कोई लेना देना नहीं है " लेकिन पहले ही चुनावों में पाटीदार समाज के अपने फौलोअरस को वोट बैंक से अधिक कुछ नहीं समझते हुए कांग्रेस से हाथ मिलाकर "अपने राजनैतिक कैरियर" की शुरुआत करके अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने की कोशिश में लग जाता है।
परीक्षा तो गुजरात की जनता की यह भी है कि वह राहुल से इस प्रश्न का जवाब मांगें, कि कांग्रेस के पास ऐसा कौन सा जादुई फार्मूला है जिससे कुछ समय पहले तक अलग अलग विचारधाराओं का नेतृत्व करने वाले हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश तीनों को वो अपने साथ मिलाने की क्षमता रखती है? क्योंकि जहाँ एक तरफ हार्दिक का मुद्दा ओबीसी कोटे में आरक्षण का है वहीं दूसरी तरफ अल्पेश ओबीसी कोटे में किसी दूसरी जाति को आरक्षण देने के खिलाफ हैं। जबकि जिग्नेश दलित उत्पीड़न रोकने के लिए जिस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं वो उन्हीं जातियों के विरुद्ध है जिनका नेतृत्व हार्दिक और अल्पेश कर रहे हैं। यह तो समय ही बताएगा कि गुजरात का वोटर अपनी इस परीक्षा में कितना विजयी होता है और राजनैतिक स्वार्थों से उपजी इस एकता के पीछे का सच समझ पाता है कि नहीं।
क्योंकि आज पूरे देश में जब हर जगह पारदर्शिता का माहौल बन रहा है तो देश को राजनीति में पारदर्शिता का आज भी इंतजार है। आखिर राहुल गांधी और हार्दिक पटेल की मीटिंगस में इतनी गोपनीयता क्यों बरती गई कि सीसीटीवी फुटेज सामने आने के बावजूद हार्दिक इन मुलाकातों से इनकार करते रहे?
जिस गठबन्धन के आधार पर राहुल गुजरात की जनता से वोट मांगने निकले हैं, उस गुजरात की परीक्षा है कि वोट देने से पहले हर गुजराती 'इस गठबंधन का आधार क्या है ' इस प्रश्न का उत्तर राहुल से जरूर पूछे।
कांग्रेस के लिए यह बेहतर होता कि जिस प्रकार मोदी गुजरात के लोगों से बुलेट ट्रेन, सरदार सरोवर डैम,आई आई टी के नए कैम्पस, रो रो फेरी सर्विस जैसे कामों के आधार पर वोट मांग रहे हैं वह भी अपने द्वारा किए गए कार्यों के आधार पर वोट माँगती लेकिन उसके पास तो जीएसटी और नोटबंदी की कमियों को गिनाने के अलावा कोई भी न तो मुद्दा है और न ही कोई भविष्य की योजना।
अपनी इस कमी को जातियों और आरक्षण के पीछे छिपाने की रणनीति अपनाकर राहुल और कांग्रेस दोनों ही गुजरात को कहीं बिहार समझने की भूल तो नहीं कर रहे ?
जहाँ बिहार को नेताओं के स्वार्थ ने जातिगत राजनीति से कभी भी उठने नहीं दिया, वहाँ गुजरात के लोगों को मोदी ने 2001 से लगातार जातियों को परे कर विकास के मुद्दे पर एक रखा।
रही बात ऐँटी इन्कमबेन्सी फैक्टर की, तो यह फैक्टर वहीं काम करता है जहाँ लोगों के पास औपशनस या फिर विकल्प उपलब्ध हो लेकिन आज गुजरात तो क्या पूरे देश में मोदी का कोई विकल्प नहीं है क्योंकी किसी समय देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी रही कांग्रेस के राहुल गांधी तो ‘अपने जवाबों के सवाल’ में ही उलझे हैं।
और शायद गुजरात की जनता भी इस बात को जानती है कि असली परीक्षा उनकी ही है क्योंकि आने वाले समय में उनके द्वारा दिया गया जवाब केवल गुजरात ही नहीं बल्कि 2019 में देश का भविष्य तय करने में भी निर्णायक सिद्ध होंगे।

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