---प्रकाश पाण्डेय, कोलकाता, 20 मार्च 2018, इंडिया इनसाइड न्यूज़।
जिसकी लाठी उसकी भैस, यह कहावत मौजूदा बंगाल के हालात को बयां करने के लिए काफी है। सियासी दबंगई और नौकरशाहों की सियासी गठजोड़ की वजह से आमजन खासा परेशान है। किसी फरियादी की फरियाद सुनने की जगह उन्हें आपसी समझौते की सलाह दी जाती है और राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कहती है कि उनके राज्य में किसी के साथ अन्याय नहीं होता, लेकिन जो यहां होता है, शायद ही कहीं होता हो। खैर, लोग बेखबर नहीं है। समस्या पुरानी है लेकिन सुर्खियां नहीं बन पायी। क्योंकि मामले का वास्ता कोलकाता से दूर हुगली जनपद के महानाद से जुड़ा है। महानाद स्थित जटेश्वरनाथ शिव मन्दिर की जमीन पर जबरन सरकारी ढांचा बनाने का आरोप प्रशासन पर है और इसके एवज में जो पक्ष रखा गया वो नाकाफी है। हुगली के पांडुआ स्टेशन से करीब 8 किलोमीटर के फासले पर स्थित महानाद ऐतिहासिक दृष्टि से बेहद ही समृद्ध रहा है और पूर्वी भारत में नाथ सम्प्रदाय के वजूद का प्रत्यक्ष प्रमाण भी है।
मंदिर के इतिहास से अवगत कराते हुए सौरवनाथ बताते हैं कि इस मंदिर की स्थापना 400 ईसवी में कुमार गुप्त ने करवाया था, जो विक्रमादित्य के बेटे थें। वहीं राजाचंद्र केतु ने 11वीं सदी में इसका जीर्णोद्धार कराया था। लेकिन बाद में अलाउद्दीन के भांजे शाह सूफी द्वारा किए गए आक्रमण में मन्दिर को काफी नुकसान पहुंचा या कह सकते हैं कि कई हिस्सों को तोड़ दिया गया। इसके बाद 17वीं सदी में राजा महेन्द्र नारायण ने वैद्यनाथ मंदिर के अनुकरण में दोबारा इस मंदिर का निर्माण करवाया। साल 1902 में योगीराज महंत लक्ष्मीनाथ जी को यहां का महंत नियुक्त किया गया। आगे चलकर साल 1998 में मंदिर के महंत योगी माधवनाथ जी द्वारा एक बार फिर से मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ। सौरव बताते हैं कि यहां पहले नाथ सम्प्रदाय के अनुयायी ओमकार साधना किया करते थे। इसी वजह से इसका नाम महानाद पड़ा। इसी स्थान पर गुरु गोरखनाथ जी और उनके गुरु मत्स्येंद्रनाथ जी का पदार्पण हुआ और यही से नाथ सम्प्रदाय का विस्तार माना जाता है। मंदिर के चारों ओर 12 कुंड है। इन 12 कुंडों में सबसे महत्वपूर्ण विशिष्ट गंगा कुंड है और यहीं महंतराज विशिष्टनाथ जी की समाधि भी है।
साल 2002 में वाम शासनकाल में एक जांच कमिटी बैठी। इस दौरान कुछ अतिक्रमणकारी ग्राम निवासी, जिनके नाम योगेश चंद्र मुखर्जी और ज्योतिन्द्रनाथ माझी है को बीएल एंड एलआरओ रिपोर्ट में केयरटेकर के रूप में पेश किया गया और इनके नाम से नोटिस जारी की गई। डब्ल्यूबीएलआर एक्ट 1955 के अंडर सेक्शन 14 टी/6 के तहत जमीन को सिलिंग में डाल दिया गया। बाद में मंदिर के तत्कालीन महंत माधवनाथ जी द्वारा डीएल एंड एलआर के समक्ष सेक्शन 54 के तहत अपील की गई। खैर, अधिकारी ने यह कहते हुए उनकी अर्जी को खारिज कर दिया गया कि उनकी नियुक्ति से संबंधित कोई कागाजात उनके पास नहीं है। लेकिन ऐसा नहीं था, उनकी नियुक्ति नाथ सम्प्रदाय द्वारा किए जाने के सभी प्रमाण उनके पास थे और उक्त नियुक्ति पत्र पर तत्कालीन गोरखनाथ मन्दिर के पीठाधीश्वर व सांसद महंत अवैद्यनाथ जी के हस्ताक्षर भी थे। 14.17 एकड़ में फैली मंदिर परिसर की जमीन के 7.49 एकड़ हिस्से को ऊसर-बंजर भूमि करार दे दिया गया। हालांकि इसके बाद साल 2005 से 2015 तक ट्राइब्यूनल में मामला चला। गौर हो कि मंदिर के कई अन्य शाखा को दर्शाकर उक्त जमीन को ऊसर-बंजर भूमि करार दिया गया था। इतना ही नहीं महानाद मंदिर, दमदम के नागेरबाजार स्थित नाथ मंदिर और पांसकुड़ा सिद्धिनाथ को एक साथ जोड़कर दिखाया गया था और सभी सम्पत्ति को एक बता कर जेटेश्वरनाथ शिव मन्दिर की जमीन को वेस्ट लैंड करार दिया गया था। आगे बताया गया कि इस दौरान जहां महानाद जेटेश्वरनाथ शिव मंदिर के 7.49 एकड़ जमीन को वेस्ट लैंड करार दिया गया, वहीं पांसकुड़ा स्थित सिद्धिनाथ मंदिर के कुल 10. 23 एकड़ जमीन को भी वेस्ट लैंड बताया गया। इन सब के बावजूद हकीकत यह है कि किसी भी नाथ मन्दिर का कोई शाखा नहीं होता और जहां तक नागेरबाजार नाथ मंदिर का सवाल है तो यह जमीन 1893 में अधिक कर बाकी होने की वजह से दिल्ली एंड लंदन बैंक द्वारा नीलामी में बंशीधर करनानी नाम के एक कारोबारी ने खरीदी थी, जिसके सारे दस्तावेज भी हैं। ऐसे में उस जमीन को महानाद से कैसे जोड़ा जा सकता है...? इतना ही नहीं उस दौरान बंशीधर करनानी ने उक्त जमीन के लिए अदा किए गए 3100 रुपए की राशि अपने तमाम सहयोगियों के साथ मिलकर जुटाई थी और यह नीलामी कलकत्ता हाईकोर्ट के जरिए की गई थी, जिसमें करनानी ने कुल 180 बीघा जमीन खरीदा था। इधर, साल 2005 में योगी माधवनाथ जी से प्रशासन के कुछ लोगों ने ट्राइब्यूनल में चल रहे मामले को खत्म करने के बाबत मुलाकात की थी, जिसमें हुगली के डीएम संजय बंसल और अन्य कई अधिकारी शामिल थे। उक्त बैठक में अधिकारियों द्वारा उन पर दबाव बनाया गया था और वो भी यह कहते हुए कि मन्दिर की व्यवस्थाओं को ठीक किया जाएगा और सौन्दर्यीकरण का काम होगा। लेकिन बाद में कथनी और करनी में अंतर दिखा और 27 नवंबर 2015 को मामला वापस लिए जाने के बाद वहां किसान भवन का निर्माण कार्य शुरू कर दिया गया। मंदिर पक्ष की ओर से बताया कि माधवनाथ जी से एक कोरे कागज पर हस्ताक्षर लिए गए थे। लेकिन गौर करने वाली बात यह भी है कि जब माधवनाथ जी ने मामला वापस लिया था उस समय योगी महासभा ने उन्हें पद से निष्कासित कर दिया था। इस लिहाज से मामला वापस लेने का उन्हें अधिकार ही नहीं था और उनके हटने के बाद ब्रह्मनाथ जी को नियुक्त किया गया।
उधर, साल 1935 में पुरातत्व विभाग ने खुदाई में गुप्तकालीन और बाद के अहम चीजें वहां से बरामद किए, जिसके बाद पूरे मंदिर परिसर को भारत सरकार के अधीन संरक्षित कर दिया गया। इस बाबत राजपत्र अधिसूचना संख्या 1885 पी, दिनांक 22.02.1937 और पुष्टि अधिसूचना 1199 पी डी 03.06.1937 को निकाली गई। खनन के दौरान वहां से पुरातत्व विभाग ने गुप्तकालीन, कुषाणकालीन और राजा शशांक के समय के कई चीजें बरामद किए थे। वहीं उक्त समानों को देश के विभिन्न संग्रहालयों में सुरक्षित रखा गया है। महानाद समस्या पर पुरातत्व विभाग के प्रमुख डॉ० जी० माहेश्वरी से मिले सौरवनाथ व अन्य की बातों को सुनने के उपरांत उन्होंने त्वरित प्रयास से एक जांच दल मौके पर भेजा, जिसके बाद जांच दल ने रिपोर्ट तैयार कर बताया कि जहां किसान भवन का निर्माण किया गया है वो हिस्सा संरक्षित जमीन के 55 मीटर के दायरे में आ आता है। इसलिए निर्माण किए गए भवन को अवैध मानते हुए इसको तोड़ने के लिए पुरातत्व विभाग की ओर से हुगली के डीएम को खत भेज गया। लेकिन डीएम की ओर से कोई एक्शन नहीं लिया गया और कहा गया कि उनके पास इस बात की जानकारी ही नहीं है कि उक्त जमीन संरक्षित है। अब मंदिर पक्ष के लोग और पुरातत्व विभाग संयुक्त रूप से मंदिर परिसर में हुए अवैध निर्माण के खिलाफ कलकत्ता हाईकोर्ट में रिट पिटीशन दायर किया है।