ट्रम्प-पुतिन शिखर सम्मेलन और यूक्रेन का भविष्य



--के• विश्वदेव राव
लखनऊ - उत्तर प्रदेश
इंडिया इनसाइड न्यूज।

इतिहास गवाह है कि जब भी दो महाशक्तियाँ मिलती हैं, तो दुनिया की दिशा बदल सकती है। 1945 में, याल्टा में फ्रेंकलिन डी. रूजवेल्ट, विंस्टन चर्चिल और जोसेफ स्टालिन की मुलाकात ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप के भविष्य की दिशा तय की थी। इस शिखर सम्मेलन में नाज़ी जर्मनी की हार के बाद, इन नेताओं ने यूरोप के नक्शे पर ऐसी रेखाएँ खींचीं, जिन्होंने पूर्वी यूरोप को सोवियत प्रभाव क्षेत्र में धकेल दिया। इस बैठक में सबसे चिंताजनक पहलू यह था कि उन देशों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं था और उनके भाग्य का फैसला उनकी पीठ पीछे हुआ। इस विश्वासघात के कारण, याल्टा पूर्वी यूरोप में एक घृणित शब्द बन गया, जो बड़े देशों द्वारा छोटे देशों के हितों की अनदेखी का प्रतीक बन गया।

आज, यूक्रेन और यूरोप में कई लोगों के मन में यही डर फिर से घर कर गया है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन अलास्का के ज्वाइंट बेस एल्मेंडोर्फ-रिचर्डसन में मिलने की तैयारी कर रहे हैं। यूरोपीय देशों को यह आशंका सता रही है कि यह मुलाकात इतिहास में एक और याल्टा न बन जाए। रूस के राष्ट्रपति पुतिन का लक्ष्य सिर्फ यूक्रेन तक सीमित नहीं है, जैसा कि वे अपने कुछ साक्षात्कारों में कह चुके हैं। वे यूरोप में एक नई “सुरक्षा वास्तुकला” स्थापित करना चाहते हैं, जो पुराने सोवियत प्रभाव क्षेत्र को फिर से बहाल कर सके।

वहीँ ट्रम्प ने संकेत दिया है कि इस समझौते में "कुछ भूभागों की अदला-बदली" भी शामिल हो सकती है। इस प्रस्ताव की तुलना 1938 के म्यूनिख समझौते से की जा सकती है, जब शांति बनाए रखने के लिए नेविल चेम्बरलेन ने हिटलर को चेकोस्लोवाकिया का एक हिस्सा दे दिया था, जिसके बाद भी युद्ध नहीं टला था। म्यूनिख की तरह ही, इस शिखर सम्मेलन में यूक्रेन का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है, जो एक बार फिर से बड़ी शक्तियों द्वारा छोटे देशों के भविष्य का फैसला करने की प्रवृत्ति को दर्शाता है। यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोडिमिर ज़ेलेंस्की ने किसी भी भूभाग की अदला-बदली के प्रस्ताव को दृढ़ता से अस्वीकार कर दिया है, उनका कहना है कि यूक्रेन अपनी संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है।

डोनाल्ड ट्रम्प और व्लादिमीर पुतिन के बीच का संबंध हमेशा से ही अमेरिकी विदेश नीति के पारंपरिक रुख से हटकर रहा है। 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में रूसी हस्तक्षेप के आरोपों के बावजूद, ट्रम्प ने कई बार पुतिन का बचाव किया। अपनी पहली मुलाकात में, उन्होंने सी.आई.ए. के निष्कर्षों पर संदेह व्यक्त करते हुए कहा था कि उन्हें पुतिन की बातों पर ज्यादा विश्वास है। ट्रम्प के आलोचक इस व्यवहार को अमेरिका के राष्ट्रीय हितों के लिए हानिकारक मानते हैं।

अमेरिका और रूस के रिश्ते दशकों से शीत युद्ध की छाया में रहे हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, दोनों देशों के बीच साम्यवाद और पूंजीवाद के वैचारिक संघर्ष ने दुनिया को दो खेमों में बाँट दिया। 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद, जॉर्ज एच.डब्ल्यू. बुश और रूसी नेता बोरिस येल्तसिन के कार्यकाल में संबंधों में कुछ सुधार हुआ। हालाँकि, यह दोस्ती ज्यादा समय तक नहीं चली। जॉर्ज डब्ल्यू. बुश ने पुतिन की "आत्मा में देखने" की बात की थी, लेकिन नाटो के विस्तार और अमेरिका की मिसाइल डिफेंस रणनीति पर दोनों देशों के बीच मतभेद गहरा गए। बराक ओबामा ने संबंधों को "रिसेट" करने की कोशिश की, लेकिन 2014 में रूस द्वारा क्रीमिया पर कब्जा करने के बाद यह प्रयास विफल हो गया। इन ऐतिहासिक घटनाओं से यह स्पष्ट होता है कि पुतिन जैसे नेता के साथ व्यवहार करना हमेशा से ही जटिल रहा है।

यह शिखर सम्मेलन भारत के लिए भी महत्वपूर्ण है, जो अमेरिका और रूस दोनों के साथ अपने संबंधों को संतुलित करने का प्रयास कर रहा है। ट्रम्प प्रशासन के तहत भारत को भी आलोचना का सामना करना पड़ा। ट्रम्प ने भारत पर व्यापार असंतुलन का आरोप लगाते हुए कई बार टैरिफ़ बढ़ाने की धमकी दी। उन्होंने रूसी कच्चे तेल के आयात को लेकर भी चिंता जताई है। अमेरिकी अधिकारियों ने यह चेतावनी दी है कि यदि यह शिखर सम्मेलन सफल नहीं होता, तो भारत पर अतिरिक्त टैरिफ़ लगाए जा सकते हैं, जिससे अमेरिका में भारतीय उत्पादों पर कुल शुल्क बढ़ सकता है।

इस नीति की अमेरिका और भारत दोनों जगह कड़ी आलोचना हुई। कई विशेषज्ञों का मानना है कि ट्रम्प की ये नीतियाँ 25 वर्षों में विकसित हुए भारत-अमेरिका संबंधों को नुकसान पहुँचा रही हैं। इस दबाव के बावजूद, भारत ने मॉस्को को आश्वस्त किया कि वह अमेरिकी दबाव में नहीं झुकेगा। नई-दिल्ली ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल को पुतिन से मिलने भेजा, जहाँ रूस के साथ रणनीतिक सहयोग पर चर्चा हुई। यह भारत के स्वतंत्र विदेश नीति के रुख को दर्शाता है, जहाँ वह अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा और ऊर्जा जरूरतों को प्राथमिकता देता है, भले ही इसके लिए उसे पश्चिमी देशों के दबाव का सामना करना पड़े। भारत के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह दोनों शक्तियों के साथ अपने संबंधों को मजबूत बनाए रखे ताकि एक अस्थिर भू-राजनीतिक वातावरण में अपने हितों की रक्षा कर सके।

अलास्का शिखर सम्मेलन यूक्रेन पर शांति समझौते की गारंटी नहीं देता। कई जटिल मुद्दे अभी भी अनसुलझे हैं। 2022 में मॉस्को और कीव के बीच इस्तांबुल में शांति वार्ता हुई थी, जो विफल रही थी। अब पश्चिमी देश यह स्वीकार कर रहे हैं कि रूस के साथ युद्ध जीतना संभव नहीं है और एकमात्र समाधान यूक्रेन की तटस्थता को स्वीकार करना ही है। ट्रम्प ने खुद इस शिखर सम्मेलन से उम्मीदें कम करने की कोशिश की है, जिसे उन्होंने एक "सुनने और समझने वाली बैठक" कहा है। यह मुलाकात अगर वाशिंगटन और मॉस्को के बीच संबंधों को स्थिर भी कर देती है, तब भी यूरोप के साथ रूस के संबंधों में तत्काल सुधार की संभावना कम ही है।

भारत के लिए अमेरिका-रूस संबंधों का संतुलित होना एक दीर्घकालिक रणनीतिक लाभ होगा। यह भारत को अस्थिर भू-राजनीतिक स्थिति से निपटने और आर्थिक विकास पर ध्यान केंद्रित करने में मदद करेगा। हालाँकि, नई दिल्ली को रूस की क्षमताओं और उन क्षेत्रों का सावधानीपूर्वक विश्लेषण करना होगा जहाँ वह भारत की विकास कहानी में योगदान कर सकता है। इस शिखर सम्मेलन का परिणाम चाहे जो भी हो, यह स्पष्ट है कि वैश्विक राजनीति एक नए मोड़ पर खड़ी है, जहाँ पुरानी संधियाँ और संबंध नई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं।

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