---डॉ• संदीप कुमार सिंह। दिनांक 27 जनवरी को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के निराला सभागार में डॉ• रामकठिन सिंह के कहानी संग्रह "मेरी आवाज सुनो" का लोकार्पण हुआ। इस अवसर पर विभिन्न वक्ताओं ने अपने विचार रखे।
विषय प्रवर्तन करते हुए प्रो• शिवमोहन सिंह ने कहा कि रामकठिन सिंह की कहानियों में जीवन है, विज्ञान चेतना है, सुव्यवस्थित और संयत दृष्टि है। उनकी यही सजगता 'मेरी आवाज़ सुनो' से होकर गुजरती है।
लोक साहित्य की विशेषज्ञ डॉ• विद्याविंदु सिंह ने रामकठिन सिंह की कहानियों के पात्रों के चारित्रिक वैशिष्ट्य को संदर्भित करते हुए आज की गूढ़ सामाजिक समस्याओं पर अपनी चिंता जाहिर की।
मुख्य अतिथि न्यायमूर्ति डी•पी• सिंह आज के सम और समाज को लेकर काफी चिंतित दिखे। उन्होंने कहा कि आज जब हम साधन सम्पन्न हुए हैं तो हमारे अंदर से मानवीय करुणा, भाव, प्रेम सब कुछ गायब होता जा रहा है। साहित्य के नाम पर केवल आक्रोश परोसा जा रहा है। दया, सद्भाव, भाईचारे की भावना नदारद है। अपने विद्यार्थी जीवन को याद करते हुए श्री सिंह ने कहा कि आज के लगभग 25 वर्ष पीछे देखें तो पाठ्यक्रमों में 'हमारे पूर्वज' तथा 'नैतिक शिक्षा' के अंतर्गत तमाम प्रेरणादायक कहानियाँ पढ़ाई जाती थीं जिससे बचपन से ही बच्चों में संस्कार बनता चलता था। हमें आज जरूरत है अपने पाठ्यक्रमों में बदलाव करने की जिसमें रामकठिन सिंह जैसे कहानीकारों की कहानियों को स्थान मिले जिससे नई पीढ़ी में एक संस्कार विकसित हो सके।
कार्यक्रम के मुख्य वक्ता इंडिया इनसाइड के सम्पादक अरुण सिंह ने अपने वक्तव्य में कहा कि जब उम्र के 77वें पड़ाव तक पहुँचते-पहुँचते दुनिया भर के लेखक बौद्धिक मीनोपॉज की स्तिथि में पहुँच जाते हों तो ऐसे में कृषि वैज्ञानिक रामकठिन सिंह की ताज़ी किताब आती है - “मेरी आवाज सुनो !” यह कहानी संग्रह।
इसमें कुल तेइस कहानियाँ हैं। लगभग सभी छोटी-छोटी हैं । ये कहानियाँ क्या हैं ! ज़िंदगी का रोज़नामचा हैं। सीधी, सरल और सपाट। बिना किसी बनाव के। बिना सजावट और आडम्बर के। एक शास्त्रीय-समीक्षक या आलोचक के लिये तो यहाँ आलोचना के लिये तो बहुत स्पेस है। खंडन-मंडन के लिये बहुत सारे सूत्र हो सकते हैं। लेकिन पाठकों के लिये यहाँ सिर्फ कथा है। कथा। जिसे सुनते रहिये, गुनते रहिये, धुनते रहिये।
ऐसी कथा, जिसे पढ़ते हुए आप देखते हैं। और सच कहें तो देखते हुये पढ़ते हैं। इन तेइस कहानियों में कुल लगभग चार आयाम की कथायें हैं। हमारी बुज़ुर्ग पीढ़ी की कहानियाँ हैं, स्त्री-जीवन की कहानियाँ हैं, किसान-समाज की कहानियाँ हैं और कुछ अन्य हैं।
सबसे बडी बात यह कि इन कहानियों का देशकाल एकदम ताज़ा है। कुल एक-डेढ़ दशक के भीतर की कहानियाँ। माने, 2004 के बाद रची गयीं हैं ये सब। यह वह समय है जब देश तरक़्क़ी कर रहा है। तमाम तरह की अभूतपूर्व इजादें हो रहीं हैं।राजनैतिक बदलाव हो रहे हैं और हमारा समाज भी बदल रहा है। उदारीकरण का यह दूसरा दशक।
हम वेल इक्विप्ड हो रहे हैं - धन-दौलत से, तकनीकि से। और सोशल साइट्स पर हम ज्ञान बाँट रहे हैं। विमर्श कर रहे हैं।साहित्य में स्त्री विमर्श, दलित विमर्श आदि जैसी चर्चायें हो रहीं हैं। लेकिन हमारे सामूहिक और सामाजिक पतन की कहानियाँ कहीं नहीं दिख रहीं हैं।
कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की “पत्तल चाटने वाली बूढ़ी काकी” को तो अब घर से ही बाहर किये जाने का चलन शुरू हो गया।कहीं प्रेमचंद कहते हैं कि आर्थिक विपन्नता हमारा अमानवीयकरण करती है, यहाँ तो साहब, हमारी समृद्धि ही हमें अमानवीय बना रही है। यानी कमाऊँपूत के घर माँ-बाप के लिये लगातार तंग होते जा रहा हैं। इसलिये बूढ़े-बुज़ुर्ग वृद्धा आश्रम भेजे जा रहे हैं। उनके साथ बड़ा ही दुखदायी व्यवहार किया जाने लगा है। उनको छला जा रहा है, लूटा जा रहा है। और यह सब उन्हीं की ‘योग्य औलादें’ कर रहीं हैं।
इस संग्रह की तेइस कहानियों में लगभग आठ कहानियाँ हमारी बुज़ुर्ग होती पीढ़ी की कहानियाँ हैं। और देखिये कि उनके साथ कौन करता है यह प्रपंच - उनका परिवार और नई पीढ़ी। यह बेहद गंभीर चुनौती है हमारे सामने। पर साहित्य में यह विमर्श का हिस्सा नहीं बन पाया अभी तक। लेखक यहाँ यह मुद्दा बडी संजीदगी से उठाता है। हमारा ध्यान खींचता है। हमें चेताता है।कहानी अलविदा, संन्यास आश्रम, जाल, मेरी आवाज सुनो आदि ऐसी ही कथायें हैं। कहानी अलविदा एक पेंशनयाफ्ता बुज़ुर्ग योगेश्वर प्रसाद दम्पति की कहानी है। योगेश्वर जी पैसेवाले हैं, सम्मानित हैं परन्तु अपने ही घर में घुटने लगे तो घरबार छोड़ने का निश्चय कर लिया। ऋषिकेश जाकर रहने लगते हैं। आप कहानी पढ़कर सन्न रह जायेगे। इस कहानी का ट्रीटमेंट अच्छा किया है लेखक ने। इसी तरह संन्यास आश्रम कहानी एक पीड़ित बुज़ुर्ग के पुरुषार्थ की कहानी जैसी है और यह सबक़ भी है।
जाल कहानी एक बुज़ुर्ग को एक युवती द्वारा ब्लैकमेल करने की कहानी है। युवा पीढ़ी का यह चेहरा भी बहुत चिंतित करता है। कुछ अन्य सशक्त कहानियाँ हैं जिन पर चर्चा हो सकती है। मुआवज़े का पैसा, एक किसान की मौत, बँटाई पर खेत और बदलाव जैसी कहानियाँ किसान-जीवन के पन्ने दर पन्ने खोलती हैं। संग्रह के शुरुआत की लगभग चार कहानियाँ स्त्री जीवन की कहानियाँ हैं। ”हमारे अब्बू” कहानी उस समय की कहानी है जब हम साम्प्रदायिक सौहार्द को लेकर चिंतित हैं, ऐसे में एक हिन्दू पिता मुस्लिम बच्चियों को पालता पोसता है पिता की तरह। यह उम्मीदों की कथा है। संवेदना की कथा है। कहानी “सुशीला” बेहद मार्मिक है। और पुरुष समाज की बेइंतहा निर्दयता व घोर स्वार्थ को चिंहित करती हुई यह कहानी आज भी स्रियों के मन में भरी करुणा और समर्पण की गाथा है। राम कठिन सिंह ने पत्रकारिता में आई गिरावट को भी कहानी में ढाल दिया। यहाँ सभी कहानियों पर विस्तृत चर्चा संभव नहीं है।
साहित्य में किसान कथा बहुत कम लिखी जा रही है। कथाकार शिवमूर्ति सरीखे इने गिने ही साहित्यकार हैं जिन्होंने किसान जीवन की कथा रचा है।
संग्रह में एक किसान की मौत, मुआवज़े का पैसा, बँटाई पर खेत, बदलाव जैसी कहानियाँ मनोयोग से लिखी गयीं हैं।
डॉ• रामकठिन को कहानी आती है, क्राफ़्ट नहीं। माने सीधी और सपाट बयानी है इनकी कहानियों में। यहाँ अनगढता का आनंद मिलता है। सारी कहानियाँ बेहद परिचित-सी हैं। अपनी देखी सुनी जैसी। इन्हें पढ़ते हुये आप हठात् कह देंगे-अरे ! ये तो फलाने के साथ हुआ था…! इन्हें कई घटनाओं का ज़िंदा कोलाज कहा जा सकता है।
इनके यहाँ ख़ालिस विमर्श नहीं, चिंतायें दिखतीं हैं। कला नहीं, कहन दिखता है। प्रपंच नहीं, मंच दिखता है। एक और आख़िरी बात- इनकी कहानियाँ बहुत विस्तारित नहीं हैं। बहुत छोटी है। बहुत कम से कम और अति आवश्यक शब्दों में हैं। संवाद की कमी अखरती है इनके यहाँ। कुछ संवाद भी यदाकदा आते तो कथायें और सशक्त हो जातीं। कुल मिलाकर इस नयी आमद का स्वागत होगा, यह उम्मीद आश्वस्ति के साथ की जा सकती है।
कथाकार शिवमूर्ति की अनुपस्थिति में उनके द्वारा भेजे गए आलेख का भी वाचन किया गया। जिसमें उन्होंने रामकठिन सिंह की कहानियों पर अपनी आश्वस्ति जताई।
कथाकार देवेंद्र ने कहानी की संरचना, उसकी बनावट और बुनावट को व्याख्यायित करते हुए रामकठिन सिंह की कहानियों की शिल्पगत संरचना पर प्रकाश डाला।
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्रो• नेत्रपाल सिंह अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में हिंदी कहानी के परिदृश्य को रेखांकित करते हुए रामकठिन सिंह की कहानियों की विषयवस्तु को प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद से जोड़ते हुए कहा कि समकालीन समाज की कोई भी परिस्थिति रामकठिन सिंह की दृष्टि से ओझल नहीं होने पायी है। वे भरे पूरे मन से जनजीवन का चित्रण करते हैं। उनका निर्विकार कहानीकार मन संवेदित हो उठता है। परिस्थितियों से जूझते हुए उनके पात्र घुटने नहीं टेकते बल्कि उनसे डटकर मुकाबला करते हैं। विश्लेषणपरकता और युगीन संवेदनाओं का सफल चित्रण उनकी कहानियों की मुख्य विशेषता है।
और अंत में रामकठिन सिंह ने धन्यवाद ज्ञापित करते हुए सभी के प्रति अपना आभार प्रकट किया। इस अवसर पर वरिष्ठ साहित्यकार डॉ• गिरीशचंद्र श्रीवास्तव, कवि डॉ• सुभाष राय, डॉ• योगेन्द्र प्रताप सिंह, डॉ• अरविंद कुमार सिंह, ग़ज़लकार देवनाथ द्विवेदी, युवा कवि डॉ• संदीप कुमार सिंह समेत शहर के तमाम साहित्यकर्मी, रंगकर्मी और सामाजिक कार्यकर्ता मौजूद रहे।