हिमाचल की खुशी, गुजरात की राहत



--- राज खन्ना, वरिष्ठ पत्रकार।

मोदी की झोली में दो और जीत। उधर राहुल की फिर हार। मोदी और भाजपा के पास खुश होने के वाजिब कारण हैं, लेकिन गुजरात की कठिन लड़ाई के संदेश समझना भी उसके लिए जरूरी है। उधर राहुल और कांग्रेस को फिर समझना होगा कि सिर्फ गांधी-नेहरू परिवार की विरासत की बदौलत वह मोदी की अगुवाई वाली  भाजपा को पार नहीं पाएगी। गुजरात एक छोटा राज्य है लेकिन देश भर की वहां के चुनाव पर नजर थी। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जड़ें गुजरात में हैं।

मोदी की राजनीतिक यात्रा का गुजरात सबसे अहम पड़ाव है। 13 वर्षों तक वहां के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी को अपनी छवि- शैली विकसित करने और कद विस्तार का वह मौका दिया जिसने उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पहुंचा दिया। लेकिन उनके वहां से हटने के बाद पार्टी के लिए सब कुछ ठीक-ठाक नहीं रहा। पाटीदारों और दलितों के आंदोलन के बीच भाजपा विरोधी सुर तेज होने शुरू हुए। मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल की कुर्सी गई। विजय रुपानी भी प्रभावी सिद्ध नहीं हुए। उधर नोटबंदी और जीएसटी ने परंपरागत रूप से भाजपा समर्थक माने जाने वाले व्यापारियों और मध्य वर्ग को भी उद्वेलित कर दिया। लगातार 22 वर्षों की सरकार के चलते सत्ता जनित नाराजगी की बहुत सी वजहें वहां मौजूद थीं। कांग्रेस ने इस नाराजगी को पाले  में करके भाजपा से गुजरात छीनने की असफल कोशिश की। इस असफलता की अनेक वजहें  हैं। कांग्रेस उनका अपने तरीके से आकलन करेगी। राजनीति और गुजरात पर नजर रखने वाले अन्य अपनी तरह से। मुमकिन है इन दोनों के बीच कुछ मुद्दों पर समानता हो। पर एक पर फर्क तय है। लोकतंत्र में कोई चुनाव आखिरी नहीं है। मतदाताओं का फैसला भी नहीं। वह अगले चुनाव में बदलता भी हैं। पर चुनाव दर चुनाव अगर मतदाता किसी नेतृत्व को ठुकराते हैं और फिर भी उनसे सबक लेने की जगह उसकी अनदेखी की जाती है तो मतदाता चाहे-अनचाहे प्रतिद्वंदी की ओर रुख करता है। कांग्रेस की मजबूरी गांधी परिवार हो सकता है। मतदाता का नहीं। राहुल कांग्रेस के लिए जरूरी हो सकते हैं। पर मतदाता लगातार उनके खिलाफ फैसले दे रहा है।

हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली में चेहरे बहुत महत्वपूर्ण हैं। गुजरात ने फिर साफ किया कि अकेले राहुल के चेहरे से काम नहीं चलेगा। हार्दिक-अल्पेश-मेवानी की युवा तिकड़ी के जुड़ाव ने कांग्रेस को सम्मानजनक हार की इज्जत बक्शी। एक बार फिर साफ हुआ कि अब जगह-जगह कांग्रेस को सहयोगियों की जरूरत है। कुछ बड़ी रैलियों के जरिए चुनावी हवा तो बनाई जा सकती है लेकिन जमीनी संगठन और क्षेत्रीय क्षत्रपों के बिना उस हवा को जीत में बदलना शायद ही मुमकिन हो। कांग्रेस और उसके समर्थकों को इस बात से खुशी मिल सकती है कि इस दरमियां राहुल अपेक्षाकृत अधिक गंभीरता से सुने जा रहे  हैं। सोशल मीडिया पर भी उनका मजाक उड़ना काफी कम हुआ है। भाषण और तेवर पहले से सधे हैं। लेकिन अपने ताकतवर प्रतिद्वंदी के अभी वह बहुत पीछे हैं। वे परिश्रम कर रहे है लेकिन मोदी-शाह के आसपास पहुंचने के लिए उन्हें लंबी  दूरी तय करनी है। गुजरात चुनाव के दौरान कपिल सिब्बल की सुप्रीम कोर्ट में मंदिर मामले को 2019 तक टालने और अय्यर का मोदी को नीच संबोधन ने कितना नुकसान किया, इसका हिसाब करते समय राहुल को जनेऊधारी हिंदू साबित करने के प्रचार के नफे-नुकसान का भी जोड़-घटाव होना चाहिए।

कांग्रेस को अपने फैसलों में स्थिरता-निरंतरता दोनों लानी पड़ेगी। चुनावी लिहाज से किसी नुस्खे पर किसी चुनाव में दांव और फिर अगले में उससे तौबा का रास्ता सिर्फ अंधेरी गली में ले जाएगा। हिंदुत्व भाजपा का जाना-पहचाना अस्त्र है। मोदी ने उसे धार दी है। भाजपा ने इसकी कीमत चुकाई है और इससे वोटों की शक्ल में लाभ भी खूब कमाया है। कांग्रेस को यह हथियार बीच-बीच में लुभाता है। एक कोशिश राजीव गांधी ने मंदिर का ताला खुलवा कर की थी। दो दर्जन मंदिरों में मत्था टिकाकर और जनेऊ धारण की। फोटो के जरिए ऐसी ही कोशिश राहुल गुजरात में करते दिखे। 132 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी और गांधी परिवार की आम मतदाता के बीच जो सूरत और पहचान है, उसे कुछ मंदिर यात्राएं तुरंत नहीं बदल सकती। भाजपा की इस पूंजी को ऐसी कोशिशों से छीनने की बात दूर, उस चोले को धारण करने की कोशिश भी लाभ की जगह नुकसान कर सकती है।

हिमांचल की शानदार जीत के बीच गुजरात ने भाजपा को राहत दी है। सिर्फ राहत इसलिए क्योंकि वहां सीटें घटने की टीस है और अगली चुनौती का संदेश भी। गुजरात नतीजों पर मोदी-शाह का बहुत कुछ दांव पर लगा था। हारते तो विपक्षी से ज्यादा पार्टी के विरोधी खुश होते। पार्टी-सरकार दोनों पर पकड़  कमजोर होती। विभिन्न राज्यों से लेकर 2019  के लोकसभा चुनावों के लिहाज से पार्टी और टिकटों के समीकरण बदलते। जीत इस मोर्चे पर राहत देगी। पर गुजरात के कड़े मुकाबले ने गैर भाजपाइयों को उम्मीद दी है। उन्हें समझ में आया है कि भाजपा विरोधी मतों का बिखराव रोककर वे हवा अपने पक्ष में कर सकते हैं। अगले कुछ दिनों में ऐसी कोशिशें तेज होती दिख सकती हैं। भाजपा को इस चुनाव ने फिर अहसास दिलाया कि वह पांच साल अपने काम और विकास की लाख बात करे लेकिन अंततोगत्वा उसे अपनी मूल पहचान और भावनात्मक मुद्दों का सहारा लेना पड़ेगा। फिलहाल मोदी का चेहरा भाजपा ही नहीं विरोधियों पर भी भारी है।  प्रधानमंत्री के रूप में वे अपने काम और कड़े फैसलों के लिए जाने-पहचाने जाते हैं। सिर्फ देश में नहीं। दुनिया के तमाम देशों में। पर उनकी मजबूरी देखिए। हर चुनाव में अपने काम और विकास से शुरू होने वाले उनके अभियान में इस बड़े चेहरे पर छोटे से गुजरात में मुख्यमंत्री के रूप में विकसित हुआ  उनका चेहरा हावी हो जाता है। किसी न किसी बहाने भाषणों में पाकिस्तान की टेक जरूरी हो जाती है। तब वे देश के प्रधानमंत्री पद की बंदिशों को दर किनार कर सिर्फ और सिर्फ जीत अभियान पर होते हैं, जिसमे हर अस्त्र और प्रहार वे जायज मानते हैं। वे नहीं बदलेंगे। राहुल बदलेंगे ?

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