--प्रदीप फुटेला
उत्तराखंड, इंडिया इनसाइड न्यूज।
भारत के संविधान ने लोकतंत्र की जड़ों को मज़बूत करने के लिए 73वां संशोधन करके वर्ष 1992 में पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा दिया। इसका उद्देश्य था – गांव की सरकार को अधिकार देकर, योजनाएं नीचे से ऊपर की ओर लाने की व्यवस्था खड़ी करना। तीन स्तरीय पंचायत प्रणाली ग्राम पंचायत, क्षेत्र पंचायत समिति और जिला पंचायत ग्रामीण जनता को सीधे शासन में भागीदारी देती है। मगर तीन दशक बाद भी सवाल वहीं के वहीं हैं - क्या वास्तव में गांवों का विकास हुआ है? क्या ग्रामीण अब भी शहरों की ओर भागने को मजबूर हैं?
ग्राम प्रधान या सरपंच को संविधान ने वित्तीय, सामाजिक और प्रशासनिक अधिकार दिए हैं। गांवों की योजनाएं, निर्माण कार्य, राशन, स्वच्छता अभियान, आयुष्मान कार्ड, जनगणना तक - सबमें पंचायत की भूमिका महत्वपूर्ण है। मगर ज़मीनी हकीकत यह है कि इन अधिकारों का उपयोग किस प्रकार और किसके इशारे पर होता है, यह सवाल खड़ा करता है।
बड़ी संख्या में चुने गए जनप्रतिनिधि पढ़े-लिखे नहीं हैं, उन्हें योजनाओं, तकनीकी पहलुओं और सरकारी दस्तावेज़ों की समझ नहीं होती। इसका फायदा उठाते हैं बिचौलिए, सचिव और प्रभावशाली लोग, जो विकास कार्यों को अपने अनुसार मोड़ देते हैं।
● जब पत्नी बनती है प्रधान
महिला सशक्तिकरण के नाम पर कई राज्यों ने पंचायतों में महिलाओं को 50% आरक्षण दिया है। यह कदम सराहनीय था - पर सिर्फ कागज़ों तक सीमित रह गया। ज़मीनी हालात में अनेक जगहों पर होता यह है कि पत्नी प्रधान होती है, लेकिन वास्तविक निर्णय पति या ससुर लेते हैं।
ये प्रॉक्सी प्रधान बनकर रह जाती हैं। कागज़ों पर हस्ताक्षर करने, शिलान्यास कार्यक्रमों में रिबन काटने और कभी-कभी फोटो खिंचवाने तक की ही भूमिका रहती है। ऐसे में निर्णय प्रक्रिया में महिला की भागीदारी केवल प्रतीकात्मक रह जाती है।
● यदि पंचायतें काम कर रही हैं, योजनाएं चल रही हैं, तो फिर पलायन क्यों? इसके पीछे कई वजहें हैं:
• रोज़गार की कमी: मनरेगा जैसी योजनाएं भी अब उतनी प्रभावशाली नहीं रहीं। मजदूरी समय पर नहीं मिलती। स्थायी नौकरी की आशा गांव में नहीं के बराबर है।
• शिक्षा का अभाव: प्राथमिक स्कूल तो हैं, पर टीचर नहीं। जो टीचर हैं, वे समय पर आते नहीं। उच्च शिक्षा की व्यवस्था गांवों से मीलों दूर है।
• स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल: गांवों में अक्सर डॉक्टर ही नहीं होते। दवा और एम्बुलेंस की सुविधा लगभग गायब है। प्रसव, आपातकाल या गंभीर बीमारी में शहर ही सहारा बनता है।
• सड़क, बिजली, पानी की बदहाल स्थिति: जिन योजनाओं के तहत हर घर नल और हर सड़क कांक्रीट होनी थी, वे फाइलों में ही तेज़ी से चल रही हैं। गांव आज भी बारिश में कीचड़ से जूझते हैं और गर्मियों में पानी की कतारों से।
इस सबका नतीजा होता है - गांव से शहर की ओर पलायन। खासकर युवा पीढ़ी, जो खेती या पशुपालन को आज भविष्य नहीं मानती।
● योजनाएं बनती हैं, पर जनता कहाँ है?
गांवों में विकास योजनाओं की जानकारी का अभाव है। ग्राम सभा की बैठकें सिर्फ औपचारिकता हैं। आम ग्रामीण को यह तक नहीं पता होता कि साल भर में गांव के लिए कितनी राशि आई, उसका उपयोग कहां हुआ। पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी ने ग्राम पंचायतों को केवल बजट खर्च करने वाली एजेंसी बना दिया है, जनभागीदारी का मंच नहीं।
• प्रशिक्षण अनिवार्य हो: चुने गए जनप्रतिनिधियों को सरल भाषा में प्रशासनिक और तकनीकी प्रशिक्षण देना ज़रूरी है, ताकि वे अपनी भूमिका निभा सकें।
• महिला प्रतिनिधियों को सशक्त किया जाए: उनका स्वतंत्र निर्णय लेना सुनिश्चित हो। इसके लिए उन्हें परिवार, प्रशासन और समाज से सहयोग मिले, न कि दबाव।
• ग्राम सभा को सक्रिय बनाया जाए: प्रत्येक योजना की जानकारी और लेखा-जोखा सार्वजनिक हो, गाँव की दीवारों पर पेंट हो, और महीने में एक बार रिपोर्टिंग हो।
• पलायन को रोकने के लिए स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दिया जाए: छोटे उद्योग, कुटीर उद्यम, कृषि आधारित रोजगार को प्रोत्साहन मिलना चाहिए।
● उत्तराखंड पंचायत चुनाव: लोकतंत्र की नींव पर सवाल, विकास बनाम वर्चस्व की जंग
सवाल सिर्फ़ वोटों का नहीं है, बल्कि गाँवों की असल तस्वीर और सत्ता की असली पकड़ का है। सवाल ये भी है कि क्या वाकई गांव की सरकार यानी पंचायतों को वह अधिकार मिल पाए हैं, जिनका सपना पंचायती राज के ज़रिए देखा गया था? या फिर आज भी गांवों की सत्ता महज़ दिखावे की है, जिसमें असली निर्णय वही ले रहा है जो पर्दे के पीछे बैठा है?
● पंचायत की हक़ीकत: कितने सक्षम हैं प्रतिनिधि?
जब पंचायतों को "गांव की सरकार" कहा गया था, तब उद्देश्य यह था कि जमीनी स्तर पर जनता को फैसलों में सीधी भागीदारी मिलेगी। लेकिन कई जगहों पर देखा जा रहा है कि जब महिलाएं जनप्रतिनिधि बनती हैं, तो वास्तविक निर्णय उनके पतियों या परिवार के पुरुष सदस्य ही लेते हैं। महिला सशक्तिकरण केवल कागजों तक सीमित रह जाता है। सवाल यह है कि जब निर्णय खुद प्रतिनिधि नहीं ले सकता, तो फिर हम उसे 'जनप्रतिनिधि' क्यों कहें?
● विकास बनाम पलायन
उत्तराखंड का एक बड़ा यक्ष प्रश्न है: "क्या गांवों का वाकई विकास हो रहा है?" कागज़ों में योजनाएं बनती हैं, बजट पास होते हैं, केंद्र और राज्य सरकार पैसा भेजती है, लेकिन न सड़कों की हालत सुधरती है, न नालियाँ बनती हैं, न ही प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ती है। बिजली और पानी जैसी मूलभूत सुविधाएं आज भी दूरदराज के गांवों में सपना हैं। यही कारण है कि ग्रामीण तेज़ी से शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, खासकर युवा पीढ़ी।
● पैसे जाते कहाँ हैं?
सरकारें योजनाओं के लिए हजारों करोड़ रुपए भेजती हैं – मनरेगा, आवास योजना, राशन, जल जीवन मिशन, आदि। लेकिन आम जन पूछ रहा है कि ये पैसा जाता कहाँ है? गांवों में कई बार यह देखने को मिलता है कि काम सिर्फ कागजों पर पूरा हो चुका होता है – नालियां बनी नहीं, लेकिन फाइल में पूरा भुगतान हो गया; शौचालय बने नहीं लेकिन तस्वीरें लगा दी गईं। इसमें पंच, सचिव, और ठेकेदार की तिकड़ी का गठजोड़ साफ दिखता है।
● अनछुए मुद्दे: लोकतंत्र बनाम जागरूकता
इस पूरे लोकतांत्रिक ढांचे में एक बड़ी चुनौती यह भी है कि अधिकांश ग्रामीण मतदाता अभी भी पूरी तरह से जागरूक नहीं हैं। वे जाति, रिश्तेदारी या दबंगई के आधार पर वोट देते हैं, न कि विकास के मुद्दों पर। ऊपर से गांव की महिलाएं और वंचित तबका पंचायत की बैठकों में शामिल ही नहीं हो पाते। यानी भागीदारी है, पर दिखावटी।
● क्या समाधान है?
• सच्ची विकेन्द्रीकरण की जरूरत है: केवल पंचायती राज अधिनियम होना काफी नहीं है। ज़रूरत है कि पंचायतों को सच्चे अर्थों में बजट, योजनाओं और निर्णयों पर अधिकार मिले।
• सामाजिक निगरानी तंत्र मजबूत हो: ग्रामीण स्तर पर सामाजिक ऑडिट को अनिवार्य किया जाए, जिससे पारदर्शिता बनी रहे।
• महिलाओं और प्रतिनिधियों को प्रशिक्षण मिले: ताकि वे आत्मनिर्भर बनकर निर्णय ले सकें।
• जनता को जागरूक किया जाए: ताकि वे अपनी समस्याओं पर सवाल पूछ सकें, जाति या दबाव के आधार पर नहीं, बल्कि काम के आधार पर वोट दें।
उत्तराखंड पंचायत चुनाव सिर्फ एक राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है, यह एक अवसर है खुद से सवाल पूछने का - क्या हमारे गांव, हमारे प्रतिनिधि, और हमारा लोकतंत्र उस दिशा में बढ़ रहे हैं जहाँ सबको अधिकार और सम्मान मिले? या फिर यह भी सिर्फ सत्ता की लकीर बनकर रह गया है?
इस चुनावी मौसम में वक़्त है मुद्दों पर बात करने का - विकास, भागीदारी, पारदर्शिता और ईमानदारी की। तभी गांव की सरकार वाकई गांव की होगी, और विकास की गूंज गांव की हर गली में सुनाई देगी।
गांव की सरकार को अधिकार तो मिले हैं, पर ज़मीन पर विकास तभी उतर पाएगा जब इन अधिकारों का वास्तव में उपयोग हो, ना कि प्रतीकात्मक प्रदर्शन मात्र। महिला नेतृत्व को सम्मान और स्वतंत्रता मिले, योजनाएं जनहित में पारदर्शी हों और ग्रामीण जनता को उनका हक और जानकारी दोनों बराबर मिले।
वर्ना पंचायतें "कागज़ी सरकार" बनकर रह जाएंगी, और गांव, शहरों की ओर पलायन करते रहेंगे - उम्मीदों की गठरी पीठ पर लादे।