पहली बारिश में ही ढह गई प्रदेश के विकास की नींव



--विजया पाठक
एडिटर - जगत विजन
भोपाल - मध्यप्रदेश, इंडिया इनसाइड न्यूज।

■बदहाल सड़कें और पीडब्ल्यूडी मंत्री राकेश सिंह का बेतुका बयान

■पीडब्ल्यूडी और नगर निगम के बीच उलझी पड़ी हैं प्रदेश की लाखों किलोमीटर की सड़कें

■आखिर पीडब्ल्यूडी मंत्री मौके पर जाकर निरीक्षण करने के बजाय कमरे में बैठकर कब तक देते रहेंगे अधिकारियों को निर्देश?

सड़कें सिर्फ कांक्रीट और डामर की परतें नहीं होतीं, ये किसी भी राज्य की विकास यात्रा की सबसे पहली सीढ़ी होती हैं। लेकिन दुर्भाग्य से मध्यप्रदेश में बारिश की पहली फुहार के साथ ही ये सीढ़ियाँ ढह जाती हैं और साथ ही ढह जाता है आमजन का विश्वास। प्रशासन, नीतियों और विकास के खोखले वादों पर राजधानी भोपाल से लेकर इंदौर, ग्वालियर, जबलपुर और सागर तक हर शहर में बरसात के पहले दौर में ही सड़कों की हालत बदहाल हो चुकी है। गड्ढे, जलभराव, ट्रैफिक जाम और दुर्घटनाएं अब सामान्य हो गई हैं, जैसे ये सरकार द्वारा स्वीकृत मानक प्रक्रिया का हिस्सा हों। बड़ा सवाल यह है कि आखिर इस तरह से प्रदेश में खस्ताहाल सड़कों का हाल कब तक देखने को मिलेगा। कब तक प्रदेश के पीडब्ल्यूडी मंत्री राकेश सिंह अफसरों को सिर्फ कमरे से बैठकर सड़क ठीक करने की हिदायत देते रहेंगे।

• कड़वी सच्चाई करोड़ों में निर्माण, लाखों में मरम्मत

सरकारी रिकॉर्ड कहता है कि मध्यप्रदेश में हर साल सड़कों के निर्माण पर हजारों करोड़ रुपये खर्च होते हैं। भोपाल में ही पीडब्ल्यूडी के पास 573 किमी सड़कों का रखरखाव है। लेकिन आश्चर्य की बात है कि इनमें से 3 प्रतिशत सड़कें बारिश की पहली बूँद में ही गड्ढों में तब्दील हो गईं। यही हाल दूसरे महानगरों का भी है। फिर इन सड़कों की मरम्मत पर लाखों रुपये फिर से खर्च होते हैं। यानि एक ही सड़क बार-बार बने, टूटे और फिर से बने। यह चक्र चलता रहता है, लेकिन सवाल वही रहता है।

• क्यों खराब हो जाती हैं राज्य सरकार द्वारा निर्मित सड़कें?

सड़कों की बदहाली का कारण सिर्फ एक नहीं, बल्कि एक संपूर्ण 'विफल व्यवस्था' है। मानक विहीन निर्माण कार्य में प्रयुक्त सामग्री की गुणवत्ता अक्सर संदेह के घेरे में रहती है। बिटुमिन की जगह पतला टार, रेत की जगह धूल और मजबूती की जगह 'जुगाड़' प्राथमिकता पाते हैं। भ्रष्टाचार और कमीशन ठेकेदारों को भुगतान से पहले ही 'सांठगांठ का हिस्सा' तय हो जाता है। कहा जाता है कि एक सड़क पर 10 करोड़ खर्च होते हैं, लेकिन असल में 05 करोड़ भी निर्माण में नहीं लगते। ड्रेनेज सिस्टम का अभाव सड़क बनें, लेकिन बारिश का पानी निकालने की व्यवस्था न हो, तो गड्ढे और क्षरण तय हैं। जवाबदेही का अभाव निर्माण एजेंसी, इंजीनियर, निरीक्षक और मंत्री- कोई भी खुद को जिम्मेदार नहीं मानता। गड्ढा दिखा तो शिकायत ऐप पर दर्ज कर दो, समाधान की उम्मीद करना बेकार है।

• पीडब्ल्यूडी और नगर निगम के बीच सड़कों की ज़िम्मेदारी का अंधा खेल

राज्य की सड़कों के अधिग्रहण को लेकर पीडब्ल्यूडी और नगर निगम के बीच वर्षों से खींचतान जारी है। एक विभाग कहता है कि सड़क हमारी नहीं, दूसरे पर आरोप मढ़ देता है। उदाहरण के लिए, भोपाल की 27 जर्जर सड़कों में से 18 को लेकर दोनों विभागों में पत्राचार चलता रहा, लेकिन मरम्मत नहीं हुई। जब जिम्मेदारी तय ही नहीं होगी, तो सुधार कैसे होगा? यह वही स्थिति है जैसे घर में आग लगी हो और परिवार के दो सदस्य यह तय न कर पा रहे हों कि बाल्टी कौन लाएगा।

• करोड़ों खर्च, लेकिन सही नतीजे नहीं मिल रहे

प्रदेश सरकार ने सड़क निर्माण और रख-रखाव में हर साल लाखों-करोड़ों रुपये खर्च किए। 1700 करोड़ रूपये का बजट शहरी निकायों को जारी है। बारिश से पहले प्रतीक्षा में रुका यह बजट, लेकिन फंड के बावजूद मरम्मत संचालन धीमा। 1100 करोड़ की फोरलेन पर पहली बारिश में टूटी। बालाघाट–गोंदिया हाईवे का निर्माणाधीन फोरलेन बारिश में क्षतिग्रस्त हो गया। राज्य के पीडब्ल्यूडी मंत्री राकेश सिंह ने खुद स्वीकार किया है कि अगर छह महीने में सड़क गड्ढा हो जाए तो कार्रवाई होनी चाहिए।

• नेशनल हाईवे पर क्यों नहीं आते गड्ढे?

आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि बरसात में भी नेशनल हाईवे पर यह हाल नहीं देखने को मिलता। इसका मुख्य कारण है बेहतर निर्माण मानक, सख्त अनुबंध और निगरानी, भुगतान में गुणवत्ता के आधार पर कटौती, जिम्मेदारी तय करने की स्पष्ट प्रणाली।

• क्या सिर्फ बैठकों से ठीक हो जाएंगी सड़कें?

पीडब्ल्यूडी मंत्री और वरिष्ठ अधिकारी अक्सर एयर कंडीशन कमरों में बैठकर समीक्षा, बैठकें करते हैं। वहाँ स्लाइड शो चलाए जाते हैं, डिजिटल नक्शे दिखाए जाते हैं और अधिकारियों को निर्देश दिए जाते हैं कि “सड़कें गड्ढामुक्त होनी चाहिए। लेकिन हकीकत में, न मंत्री मौके पर जाते हैं, न अफसरों को ज़मीनी हकीकत का अंदाजा होता है। बैठकें दिखावे की रस्म बन चुकी हैं, जिनका आमजन के जीवन पर कोई असर नहीं पड़ता।

• टोल टैक्स का बोझ, लेकिन सुविधाओं में शून्यता

प्रदेश में टोल टैक्स वसूली जोर-शोर से की जाती है। हर 20-30 किमी पर एक टोल प्लाजा खड़ा है, जो वाहन चालकों से मोटी रकम वसूल करता है। लेकिन बदले में सड़कें टूटी हुई, न तो रैनबसेरा, न आपातकालीन सेवा, अंधेरे में लाइटें नहीं, बारिश में जलभराव जैसी स्थिति बनती है। बड़ा सवाल यह है कि जब सड़क निर्माण की प्रक्रिया शुरू होती है, तो सबसे पहले ठेकेदार तय होता है और अक्सर यह प्रक्रिया 'कागज़ी योग्यता' से ज्यादा ‘पहुंच’ पर निर्भर करती है। ठेका मिलते ही सबसे पहले ‘कमीशन सेटिंग’ होती है। विभागीय इंजीनियर, अफसर और नेतागण अपना हिस्सा पहले ही मांग लेते हैं। निर्माण में जो बजट बचता है, उसमें सड़क बनती है।

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