पालुमूरु था महबूबनगर! निजाम ने दूध में जहर घोला!!



--के• विक्रम राव
अध्यक्ष - इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स।

योगी आदित्यनाथ ने तेलंगाना विधानसभा की चुनाव प्रचार सभा में रविवार (26 नवंबर 2023) ऐलान किया कि यदि भाजपा सत्ता में आयी तो जिला महबूबनगर का नाम फिर पालुमूरु रखा जाएगा। तेलुगुभाषी हिंदुओं की दुखती नस को योगीजी ने बड़ा सुकून दिया। ठंडक पहुंचाई। तेलुगु में पालु मतलब दूध। यहां दूध का भंडार था। बरगद के पेड़ों का झुंड भी। सलेटी चट्टानों की भरमार रही। मगर एक दिन (4 दिसंबर 1896) को छठवें निजाम मीर महबूब अली खान सिद्दीकी के नाम यह जिला कर दिया गया। यहां काकतीय सम्राट प्रतापरुद्र का साम्राज्य हुआ करता था। अचरज इस बात से है कि सुदूर उत्तर भारत के योगीजी के मन में तो हिंदूजन के प्रति टीस उठी। मगर महबूबनगर से बस ढाई सौ किलोमीटर दूर करीमनगर के स्व. प्रधानमंत्री पर पीवी नरसिम्हा राव में नहीं ऐसा दर्द उठा ताकि अपने गृह जनपद करीमगंज का सातवाहन-युगीन मूल नाम एलागंदला वापस रख पाते। वह आज भी सैय्यद करीमुल्लाह शाह कादरी के नाम से ही जाना जाता रहा। यहां कर्नाटक के पश्चिम चालुक्यों का राज था। और तो और हैदराबाद राज्य में प्रथम मुख्यमंत्री, स्वाधीनता सेनानी डॉ. बुर्गुला रामकृष्ण राव, उत्तर प्रदेश के पांचवे राज्यपाल, स्वयं महबूबनगर के थे। वे उसका नाम सुधार नहीं पाए। मेरे सजातीय और संबंधी थे डॉ. रामकृष्ण राव। मजबूत इच्छा शक्ति के व्यक्ति। उन्होंने भारत की पहली कम्युनिस्ट सरकार (ईएमएस नंबूदिरीपाद) को बर्खास्त कर दिया था। वे तब केरल के राज्यपाल थे। अतः इसी सिलसिले में योगी जी की घोषणा का तेलंगाना मीडिया और जनता में स्वागत होना सहज है, स्वाभाविक भी। इसी जिले (महबूबनगर) की खानों से विश्वविख्यात कोहिनूर पाया गया था। यहां हीरों की खदाने हैं।

महबूबनगर की भूमिका भी निजाम-विरोधी जनांदोलन में काफी अग्रणी रही। डॉ. रामकृष्ण राव ने उसका नेतृत्व किया था। उनकी सक्रिय भागीदारी रही जब भारतीय सेना ने हैदराबाद को निजाम की ढाई सदी की गुलामी से आजाद (17 सितंबर 1948) कराया था। वर्ना हैदराबाद तो कराची के बाद पाकिस्तान की दक्षिणी राजधानी बन रही थी। भारत आभारी है सरदार वल्लभभाई पटेल का। मगर हैदराबाद की जनता को तेरह महीने का संघर्ष करना पड़ा था।

जालिम निजाम से मुक्ति संघर्ष के दौरान तेलुगू अखबार “गोलकुंडा पत्रिका” का उल्लेख आवश्यक है। इसकी शुरुआत हैदराबाद में 1926 को हुई थी। सन 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम की सतरवीं वार्षिकी थी। यह पत्रिका 1967 तक चली। इस पत्रिका के लब्ध-प्रतिष्ठित संस्थापक-संपादक थे सुरवरम प्रताप रेड्डी जो स्वयं स्वतंत्रता सेनानी, कवि, वकील और इतिहासकार थे। उनकी पुस्तक आंध्र जन का सामाजिक इतिहास पर केंद्रीय साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला था। इसका हिंदी अनुवाद यर्लगड्ड लक्ष्मी प्रसाद ने किया है। प्रताप रेड्डी अगस्त 1953 तक जीवित रहे। वे विधायक भी रहे। प्रताप रेड्डी को 1920-1948 की अवधि के दौरान तेलंगाना में सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण आंदोलन में सक्रिय भागीदारी और नेतृत्व के लिए जाना जाता है, जिसने निज़ाम की निरंकुशता को चुनौती दी और भयानक सामंती राजशाही की तानाशाही से लोगों की मुक्ति के लिए काम किया। वे 1930 में जोगीपेट में आयोजित लोगों के प्रसिद्ध लड़ाकू संगठन निज़ाम आंध्र महासभा के पहले अध्यक्ष थे। उन्होंने लगातार सभी तेलुगु लोगों की एकता के विचार का प्रचार किया। विशालांध्र की अवधारणा और मांग के प्रबल समर्थक थे।

विधानसभा चुनाव के परिपेक्ष्य में योगीजी को याद दिलाना है कि दिसंबर 2020 में नगर महापालिका चुनाव प्रचार में उनका वादा था कि हैदराबाद का प्राचीन नाम भाग्यनगर वापस रखा जायेगा। शहर का नाम भाग्यनगर था। सुल्तान कुली कुतुबशाह ने अपनी प्रेयसी नृत्यांगना भागमती पर रखा था। उन्होंने 1589 में उसे स्थापित किया था। बाद में इसे उनके पुत्र हैदर ने अपने नाम कर दिया।

आज भले ही हैदराबाद इस्लामी कट्टरता का पर्याय बन गया हो, पर एक दौर में यह शहर अलबेला था। यह एक रिझावना, रंगरूप का चमन रहा, जिसमें नफीस लखनऊ की जवानी है, तवारीखी दिल्ली की रवानी भी। देश का पांच नंबर वाला यह शहर कैसे बना, यह एक रूमानी दास्तां है। उर्दू और तेलुगु के माने हुए कवि नवाबजादा मोहम्मद कुली कुतुबशाह का तैलंग तरुणी भाग्यवती बाला से इश्क हो गया था। मूसा नदी को घोड़े से पार कर वे अपनी महबूबा से मिलने जाते थे। रियासती गद्दी पर नवाब साहब के आते ही भाग्यमती हैदरमहल बनी। प्रेम की निशानी में नए शहर का नाम भाग्यनगर, बाद में हैदराबाद रखा गया। चार मीनारवाले इस स्थान को इतिहासकार फरिश्ता ने ''हिंदुस्तान का सुंदरतम नगर'' कहा था।

तुलना में जहां मुंबई और कोलकत्ता फीके लगते हैं, हैदराबाद इस प्रदेश का नखलिस्तान है। पड़ोस से सटे सिकंदराबाद के साथ यह जुड़वां शहर एक मिसाल है। दोनों शहरों में फासला रहा नहीं, फिर भी दो विश्वविद्यालय, दो भाषाएं, दो संप्रदाय और दो औषधि प्रणालियां हैं। लिबास भी भिन्न है। एक में रंगीन अचकन और पायजामा है तो दूसरे में धोती व कुर्ता।

इस प्रथम भाषावार राज्य ने भाषा को वैमनस्य का कारण कभी नहीं बनाया। प्रथम आंध्र विधानसभा में छह भाषाएं मान्य थीं: उर्दू, हिंदी, मराठी, कन्नड, अंग्रेजी और तेलुगु इनके अलावा तमिल, मलयालम, पंजाबी, फारसी और तुर्की भी बोली जाती है। कई दफा मराठी साहित्य सम्मेलन हैदराबाद में सम्पन्न हुये। मुस्लिम आक्रमण के बाद निजामशाही यहां स्थापित हुई और तभी से तेलंगाना का दुर्भाग्य शुरू हुआ। अय्याश और धर्मांध निजाम ने आमजन के शोषण से वैभवपूर्ण साम्राज्य रचा, जिसने भारत के स्वतंत्र होते ही पाकिस्तान में विलय का निर्णय किया। गनीमत थी कि सरदार वल्लभभाई पटेल ने भारतीय सेना की टुकड़ी भेजकर रजाकार नेता काजिम रिजवी की साजिश को खत्म किया और बूढ़े निजाम मीर उस्मान अली खान से (जो अपने को रुस्तमे-दौरां, अरस्तु जमां और फतेह-जंग कहता था) आत्मसमर्पण करवाया। अब तेलंगाना करवट ले रहा है। परिवर्तन की लहर की प्रतीक्षा है।

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