अंबेडकर की मूर्ति हटेगी! तमिल के न्यायिक परिसर से!!



--के• विक्रम राव,
अध्यक्ष - इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स।

मद्रास हाईकोर्ट की संपूर्ण पीठ (57 न्यायमूर्तिजन) ने निर्दिष्ट किया है कि तमिलनाडु तथा पुडुचेरी के कोर्ट परिसरों से डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रतिमायें, फोटो आदि हटा दी जाएं। (टाइम्स ऑफ इंडिया : 23 जुलाई 2023, मुख पृष्ठ)। हालांकि प्रदेश कांग्रेस पार्टी ने इस निर्णय पर पुनर्विचार की मांग की है। भारत का तीसरा सबसे पुराना हाईकोर्ट, (जून 1862 में निर्मित, कोलकाता तथा मुंबई के बाद) मद्रास का है। इसने 11 मार्च 2010 को ही आदेशित किया था कि केवल महात्मा गांधी और तमिल संत कवि तिरुवल्लुवर के अतिरिक्त किसी का भी चित्र न्यायिक परिसर में नहीं लगना चाहिए। यह तमिल संत कवि ईसा पूर्व के संहिता-रचयिता हैं। सामाजिक सुधार के प्रणेता रहे। मद्रास हाईकोर्ट ने सर्वप्रथम 27 अप्रैल 2013 को, और बाद में 7 जुलाई 2023 के दिन एक परिपत्र द्वारा इस निषेध को जारी किया था। डॉ. अंबेडकर का चित्र लगाने के आग्रह वाले इस मद्रास के निर्णय का प्रभाव पड़ोसी कर्नाटक में भी पड़ा है।

यूं इस अंबेडकर के मसले पर कई जगह हिन्दु समाज अत्यंत विभाजित नजर आ रहा है। तमिलनाडु में ही कई पिछड़े वर्ग के लोगों ने इस दलित मसीहा को समर्थन देने से साफ इंकार कर दिया है। पिछड़ा बनाम दलितवाला पुराना सामाजिक विभाजन गहरा रहा है। अन्य जाति वाले लोग अभी इस सवाल पर अंबेडकर के पक्ष में नहीं आयें हैं। मसलन 1 जनवरी 1818 को हुई कोरेगांव के युद्ध का उदाहरण पेश है। बड़ी संख्या में राष्ट्रप्रेमी मराठे तथा क्षत्रिय इस समर में अंग्रेजी साम्राज्यवाद, के विरुद्ध लड़ते शहीद हुए थे। उनके समर्थन में शिवाजी के वंशजों ने संघर्ष किया। मगर डॉ. भीमराव अंबेडकर ने ब्रिटिश शासकों का समर्थन किया था क्योंकि इस आंग्ल-मराठा युद्ध में महार सैनिक ब्रिटिश राज के साथ रहे। डॉ. आंबेडकर महार जाति के थे।

अंबेडकर ने 1 जनवरी 1927 को कोरेगाँव विजय स्मारक (जयस्तंभ) में एक समारोह आयोजित किया था। यहाँ महार समुदाय से संबंधित सैनिकों के नाम संगमरमर के एक शिलालेख पर खुदवाये गये तथा कोरेगाँव को दलित स्वाभिमान का प्रतीक बनाया। उन्होंने 25 दिसंबर 1927 को मनुस्मृति की प्रतियां जलाईं थीं। अतः अंबेडकर का प्रश्न आते ही महाराष्ट्र में जातिगत विभाजन स्पष्ट दिखता है। इसी का प्रभाव दक्षिण वाले प्रदेशों में भी पड़ने लगा है। शायद आधुनिक भारत में अंबेडकर के प्रश्न पर दलित और पिछड़ा वर्ग के मतभेद उभरते रहे हैं। अंबेडकर की उक्ति याद है कि : “सामाजिक समरसता कायम होने तक ब्रिटिश राज भारत में बना रहे।” इतिहास गवाह है कि आम्बेडकर ने कांग्रेस और गाँधी द्वारा चलाये गये नमक सत्याग्रह की भर्त्सना की थी। लंदन में होने वाले 1931 में दूसरे गोलमेज सम्मेलन में डॉ. अंबेडकर को आमंत्रित किया गया था। वहाँ दलितों को पृथक निर्वाचिका के मुद्दे पर गाँधी से बहस हुई थी। ब्रिटिश शासक डॉ. आम्बेडकर के विचारों का समर्थन किया था। धर्म और जाति के आधार पर पृथक निर्वाचिका देने के प्रबल विरोधी महात्मा गाँधी ने आशंका जताई कि दलितों को दी गयी पृथक निर्वाचिका हिंदू समाज को विभाजित कर देगी। मगर अंग्रेजों ने 1932 में अम्बेडकर से सहमति व्यक्त करते हुये दलितों को पृथक निर्वाचिका वाले कम्युनल अवार्ड की घोषणा कर दी। बापू ने विरोध में आमरण अनशन किया। तय हुआ कि हिन्दू समाज को विभाजित नहीं होने दिया जाएगा।

गांधीजी तब यरवदा केंद्रीय कारागार में कैद थे (24 सितम्बर 1932)। एम. आर. जयकर, तेज बहादुर और डॉ. आम्बेडकर महात्मा गांधी से जेल में मिले। तब समाधान निकला। पूना पैक्ट बना। मगर इन सब ऐतिहासिक घटनाओं के परिवेश में दक्षिण-पश्चिमी भारतीय प्रदेशों की जनता में दलित बनाम पिछड़ा समाज के खेमों में विभाजन गहराता गया।

गांधीजी डॉ. अंबेडकर का सदैव सम्मान करते रहे। स्वतंत्रता की बेला पर 1946 में महात्मा गांधी ने जवाहरलाल नेहरू के सुझाव को खारिज कर डॉ. अंबेडकर को संविधान रचना समिति का अध्यक्ष मनोनीत कराया। नेहरू की पसंद थे ब्रिटेन के सर आइवोर जेनिंग्स जिन्होंने सिलोन (श्रीलंका), पाकिस्तान, मलाया, नेपाल आदि के संविधान की रचना की थी। मगर महात्मा गांधी ने इस ब्रिटिश कानून विद्वान को नकार कर भारतीय डॉ. अंबेडकर को नियुक्त कराया। हालांकि डॉ. अंबेडकर संविधान सभा का चुनाव जीत न सके थे। फिर उन्हें बंगाल से जितवाया गया। महात्मा गांधी की दूरदृष्टि का ही परिणाम है कि डॉ. अंबेडकर सरीखे महान विधिवेत्ता के पथ प्रदर्शन में ही नए गणराज्य को संविधान मिला।

यूं आजाद भारत के कई वरिष्ठ और राष्ट्रवादी नेताओं को अंतरिम ब्रिटिश शासक द्वारा सर आइवोर जेनिंग्स को संविधान समिति में करने और डॉ. अंबेडकर का विरोध करने पर बहुत आश्चर्य हुआ था। ब्रिटिश शासक हमेशा डॉ. अंबेडकर के पक्षधर रहे थे। बंबई के अंग्रेजी गवर्नर ने 1926 में डॉ. अंबेडकर को मुंबई विधान परिषद का सदस्य मनोनीत किया था। वे 1936 तक विधायक रहे। उन्हें सरकारी लॉ कॉलेज 1935 में प्रधानाचार्य नियुक्त किया गया। उन्होने दो वर्षो तक कार्य किया। फिर 1942 से 1946 तक अंबेडकर को ब्रिटिश वायसराय के काबीना में श्रम मंत्री नियुक्त किया गया। तब भारत में 1942 का “भारत छोड़ो” जनसंघर्ष चल रहा था। कांग्रेसी सत्याग्रही ब्रिटिश जेलों मे गए थे।

वर्तमान परिवेश में यह विषादभरा विषय यही है कि स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद भी भारतीय समाज तीन खेमों में बटा है : सवर्ण, पिछड़ा तथा दलित। इन तीनों को जब तक एक सूत्र से नहीं पिरोया जाएगा तब तक डॉ. अंबेडकर का चित्र लगाने जैसे मुद्दे पर सम्यक विचार नहीं बन पाएगा। अतः अब वोट बैंक की सियासत पर संयुक्त रूप से प्रहार करना पड़ेगा, ताकि राष्ट्र एक रहे।

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