पितृपक्ष के महत्व एवं बदलते परिवेश



--परमानंद पाण्डेय
लखनऊ - उत्तर प्रदेश
इंडिया इनसाइड न्यूज।

■मनुष्य के जीवन में पितृऋण अदायगी का अवसर

मनुष्य के जीवन में तीन कर्ज ऐसे होते हैं जिन्हें उतारना हर व्यक्ति का परम धर्म कर्तव्य होता है, इनमें पितृ ऋण, गुरु ऋण, एवं देव ऋण माने जाते हैं, और बिना इन्हें चुकता किये मनुष्य का कल्याण नहीं होता है। पितृ ऋण चुकता करने के लिये साल में एक पखवाड़ा आता है जिसे पितृपक्ष कहा जाता है, और सभी अपने माता - पिता, बाबा - आजी, नाना - नानी जैसे पितरों को रोजाना पानी देकर उनकी पूजा अर्चना करते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस पितृपक्ष में पितरों के सिवाय किसी भी देवी देवता भगवान की पूजा मान्य नहीं होती है, और जो लोग किसी देवी देवता भगवान की पूजा करते भी है, तो वह पितरों की पूजा अर्चना में बदल जाती है। मान्यता यह भी हैं कि पितृपक्ष की पहली शुरुआत चौमासे के रूप में उस समय हुयी थी, जब ऋषि मुनि बरसात से जगंल में बचाव न होने के कारण शिष्यों के साथ आबादी में चले आते थे, और चौमास बीतने के बाद उन्हें विदाई दी जाती थी। फिलहाल पितृपक्ष में पितरों की पूजा अर्चना पिंडदान आदि देकर श्राद्ध कर उन्हें विदाई देने की परम्परा आदिकाल से चली आ रही है। मान्यता यह भी है, कि पितृपक्ष में सभी लोगों के पुरखे अपना धाम छोड़कर गाँव के बाहर आकर डेरा डाल देते हैं, और हम सभी जो उन्हें पानी देकर पूजा अर्चना, पिंडदान, हवन, श्राद्ध आदि करते हैं, उसे वह ग्रहण करते हैं, और विसर्जन के अंतिम दिन हम सभी को ढेरों सा आशीर्वाद देते हुए प्रसन्नचित्त होकर अपने धाम को लौट जाते हैं। जिन पुरखों के परिवार में पानी देकर उनकी पूजा अर्चना नहीं की जाती हैं उनके पुरखे भूखे प्यासे बद्दुआएं एवं श्राप देते और बेइज्जती महसूस करते हुए भरे मन से वापस लौट जाते हैं। और कहते जाते है कि आज पितृपक्ष का अंतिम दिन है लेकिन बुढ़िया बुढ़वा दोनों लोगों को कल ही विदा कर दिये गये है ऐसा तिथि दोष के चलते हुआ है। पितृपक्ष के महत्व का वर्णन धर्मग्रंथों मे किया गया है और इसमें मनुष्य को पितृ ऋण अदा करने का अवसर पितृपक्ष में मिलता है। कहते यह भी हैं कि पितरों को पिंडदान देने की शुरुआत त्रेतायुग में भगवान राम ने गयासुर के निवेदन पर की थी, जो आज यह परम्परा बन गयी है।

इस समय कलियुग में कुछ ऐसे भी लोग हैं जो कि अपने जीवित बुजुर्ग माता पिता का सम्मान एवं पुत्रधर्म का पालन न करके उनका अपमान व तिरस्कार कर उन्हें बोझ एवं बाधक मान रहे हैं और उन्हें वृद्धाश्रम में तक छोड़ आते हैं, जो जिन्दा रहते अपने बुजुर्गों का मान सम्मान नही कर पाता है वह मरने के बाद उनकी क्या पूजा अर्चना कर उन्हें पानी पिलायेगा? माता पिता को प्रत्यक्ष ईश्वर का स्वरूप माना गया है, और माता पिता की सेवा के बल पर भक्त श्रवण कुमार अमर हो गये।

पितृपक्ष का स्वरूप बदलते समय के साथ पितृपक्ष का स्वरूप भी बदलता जा रहा है और व्यस्तता के चलते केवल औपचारिकता पूरी की जाने लगी है। कुछ ही लोग ऐसे हैं जो कि सिर, दाढ़ी, मूछें मुड़वा कर संयासी एवं ब्रह्मचर्य धारण कर सारे जहाँ को छोड़ रात-दिन पितरों को याद कर नतमस्तक होते हुए अपने दैनिक कार्यों को निपटाते रहते हैं। पितृपक्ष में कुछ लोग अपने पितरों को पिंडदान देकर उन्हें मुक्ति दिलाने जहाँ चारों धाम की यात्रा पर निकलते हैं तो वहीं कुछ लोग पितृपक्ष में हर बार काशी, गया, प्रयागराज, अयोध्या आदि धार्मिक स्थानों पर अपने पुरखों को पिण्डदान देने जाते हैं और वापस लौटकर श्राद्ध करते हैं। पितृपक्ष समाप्त होने के तत्काल बाद मातृ शक्ति की पूजा अर्चना नवरात्रि के रूप शुरू हो जाती है और नवरात्रि के अंतिम दिन ही भगवान राम महाअसुर रावण को मारते हैं। कहने का मतलब पितृपक्ष समाप्त होते ही माँगलिक कार्यों की शुरुआत हो जाती है।

वन्दे मातरम्, जय हिन्द, जय भारत, जय सनातन धर्म।

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