सोनिया का नैराश्य-बोध !!



--के• विक्रम राव
अध्यक्ष - इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स।

सोनिया-कांग्रेस का एटीएम हरियाणा में खुल नहीं पाया। राजकोष पर सियासी डकैती से बचाव भी हो गया। वर्ना कृषि विकास की ओट में किसानों के लिए जमा राशि अब तक पार्टी फंड में चली जाती। "नेशनल हेरल्ड" फंड का सबूत सामने है। यूं भी छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में पराजय के बाद सोनिया-कांग्रेस में टोंटा पड़ गया था। धनी कमलनाथ इसके सबूत हैं। उनके पदच्युत हो जाने से कांग्रेस को अपूर्ण क्षति हुई। राहुल गांधी की पदयात्रा भी प्रभावित रही। तामझाम फीका रहा। राहुल तो दलित शैलजा के समर्थन में रहे, जिन्हें उनके पिता राजीव गांधी कांग्रेस में लाए थे।

हालांकि सोनिया गांधी पुराने अश्व भूपेंद्र सिंह हुड्डा की पक्षधर रहीं। हुड्डा भी बस शपथ ग्रहण हेतु नया सूट सिलवाने की बाट जोह रहे होंगे। दर्जी निराश हो गया। नौबत नहीं आई। प्रेस रिपोर्टरों से जिस लहजे में हुड्डा वार्ता कर रहे थे प्रतीत होता था कि मानो मुख्यमंत्री पद पर दशक के बाद वे फिर आरूढ़ हो ही जाएंगे।

दो वाकयों का इस चुनाव विश्लेषण में जिक्र बड़ा समीचीन होगा। पहला, संघ के सरसंचालक मोहन भागवत का इस चुनाव प्रचार में बड़ा रचनात्मक रोल। हाल ही में मोदी के वचनों के फलस्वरुप भाजपा तथा संघ के रिश्तों में खटास आ गई थी। प्रधानमंत्री ने वक्त रहते "डेमेज कंट्रोल", चलताऊ लहजे में "भूल सुधार" कर ही लिया।

संघ के कार्यकर्ता कोप भवन से बाहर निकले, उमड़ पड़े। चुनावी प्रबंधन और प्रत्याशी-चयन में भूमिका निभाई। नतीजा दिखा है। अटल बिहारी वाजपेई ने अपनी हस्ती दर्शाने हेतु अक्सर संघ को दरकिनार कर देते थे। संघर्ष के दौर में अयोध्या भी वे नहीं गए थे। लखनऊ हवाई अड्डे से जिलाधिकारी स्व. अशोक प्रियदर्शी के कहने पर दिल्ली उल्टे पांव लौट गए थे। दूसरे दिन बाबरी ढांचा संघ कारसेवकों द्वारा ढहाने पर अटलजी रुंधे गले से संसद में बोले : "आज का दिन इतिहास का सबसे काला दिवस है। छः दिसंबर को अयोध्या में जो कुछ हुआ, वह बिल्कुल नहीं होना चाहिए था।" एक वीडियो इंटरव्यू में, उस समय भाजपा सांसद रहे वाजपेयी जी ने बताया : "अयोध्या मुद्दे पर मैं अपनी पार्टी से असहमत था और इस्तीफा देना चाहता था।" अटलजी की सदैव कोशिश रही कि कथित उदार, सेक्युलर छवि उनकी बनी रहे।

मोदी को सब याद रहा। संघ का साथ न लेना मतलब निश्चित पराजय को स्वीकारना।

हरियाणा में कांग्रेस की पराजय का एक दिलचस्प वाकया रहा भिवानी के बवानी खेड़ा (आरक्षित) विधानसभा क्षेत्र का चुनाव। हुड्डा-शैलजा के कलह से कहीं अधिक आकर्षक यहीं का परिणाम रहा। इस सीट पर प्रियंका और राहुल ने अपने चहेते प्रदीप नरवाल को टिकट दिया था। वे कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव हैं, दलित पुरोधा हैं, उत्तर प्रदेश में पार्टी के प्रभारी हैं। यदि वे जीतते और पार्टी सरकार बनाती तो वे निश्चित काबीना मंत्री बनते। मगर नरवाल को भाजपा प्रत्याशी कपूर सिंह ने हरा दिया।

हरियाणा में भाजपा का बहुमत पाना मोदी की निजी जीत है। उन्होंने अपने युवा-सखा और रूम-पार्टनर रहे मनोहरलाल खट्टर को मुख्यमंत्री बना दिया था। संघ प्रचारक की दौर में मनोहरलाल खट्टर जी मोदी के हरियाणा में संगी-साथी रहे। मगर राजनीति निर्मम होती है। जैसे गुजरात में अक्षम मुख्यमंत्री विजय रुपाणी को हटाकर मोदी ने भूपेंद्र पटेल को नामित किया था। उसी प्रकार हरियाणा में भी मोदी ने साथी खट्टर की छुट्टी कर दी और पिछड़े नायाब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बना दिया। परिणाम आशातीत रहे।

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