फिरंगी महल और बापू! पाकिस्तान के विरोधी मुस्लिम थे!!



--के• विक्रम राव
अध्यक्ष - इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स।

लखनऊ के पुरातन इस्लामी आध्यात्मिक केंद्र फिरंगी महल ने आज जोरशोर से गांधी जयंती मनाई। आम संदेश दिया कि राष्ट्रपिता से प्रेरणा पाकर भारतीय मुसलमानों ने तनमन से ब्रिटिश राज की मुखालफत की थी। बापू ने राष्ट्रीय सामंजस्य को पनपाया, बढ़ाया। एक गौरतलब तथ्य यह रहा कि भारतीय इस्लामी विद्वान मौलाना अब्दुल बारी फिरंगी महली, 111 पुस्तकों के लेखक, ने बापू के असहयोग संघर्ष का पुरजोर समर्थन किया था। उन्होंने गोवध पर मजबूती से पाबंदी लगाने की पुरजोर मांग की थी।

अपने लखनऊ प्रवास के दौरान महात्मा गांधी अपनी बकरी के साथ मौलाना अब्दुल बारी के अतिथि होते थे। महात्मा गांधी शाकाहारी थे, इसलिए उनके लिए खाना बनाने के लिए लखनऊ के चौक इलाके से एक ब्राह्मण रसोइया खास तौर पर बुलाया गया था। महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा में भी इसका जिक्र किया है।

जंगे आजादी में गुलामी की बेड़ियां तोड़ने में फरंगी महल के उलमा की चार पीढ़ियों ने संघर्ष किया। उन्होंने जहां असहयोग आंदोलन की नींव डाली तो वहीं ब्रिटिश उत्पादों का बहिष्कार किया था। उलमा ने पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया।

पाकिस्तान बनने के बाद चौधरी खलीकुज्जमां के छोटे भाई चौधरी मुशरिकउज्जमा ने फरंगी महल आकर मौलाना कुतुबउद्दीन को पाकिस्तान आने की दावत दी। उन्होंने मौलाना को पाकिस्तान में हर तरह की सहूलियत देने का वायदा किया। तब मौलाना ने मिर्जा के एक शेर : "मौजे खूं सर से गुजर ही क्यों न जाए, आस्ताने यार से उठ जाएं क्या ?" सुना कर उन्हें मना कर दिया। मौलाना कुतुबउददीन की पोती नुजहत फातिमा बताती हैं कि पाकिस्तान बनने के (1947 में) बाद चौधरी खलीकुज्जमां के छोटे भाई चौधरी मुशरिकउज्जमा ने फिरंगी महल आकर मौलाना कुतुबउददीन को पाकिस्तान आने की दावत दी। लेकिन मौलाना ने मना कर दिया।

आजादी की लड़ाई में फरंगी महल की खास अहमियत थी। यहां के हॉल में स्वतंत्रता संग्राम की बैठकें हुआ करती थीं। इन बैठकों से पहले हमेशा वंदे मातरम् और अल्लाह-ओ-अकबर का नारा लगता था। जब गांधीजी की हत्या हुई तो फरंगी महल से मौलानाओं का एक जुलूस नंगे पांव निकला। इसमें पीछे एक धुन बज रही थी और सब की जुबां पर रघुपति राघव राजा राम पतित पावन सीता राम...था। ये लाइनें गुनगुनाते हुए सभी विक्टोरिया स्ट्रीट से अमीनाबाद पार्क पहुंचे थे।

वर्तमान में फिरंगी महल के मौलाना खालिद रशीद उसी परंपरा को निभा रहे हैं। राष्ट्रीय सामंजस्य को दृढ़ कर रहे हैं।

मगर आज क्या हालत है जिन्ना-सृजित इस स्वप्नलोक की? बंबइया फिल्मी संवाद-लेखक 63-वर्षीय शक्तिमान “विकी” तलवार ने अपनी ताजी फिल्म “गदर-2” में लिखा : “दुबारा मौका हिंदुस्तान में बसने का इन्हें मिले, तो आधे से ज्यादा पाकिस्तान खाली हो जाएगा।” अभिनेता सनी देओल ने पाकिस्तान से यह भी कहा : “कटोरा लेकर घूमोगे, तब भी भीख नहीं मिलेगी।”

यदि आज पर विभाजन की त्रासदी पर विमर्श हो, तो एक ऐतिहासिक पहलू गौरतलब बनेगा। (मेरी नई किताब "अब और पाकिस्तान नहीं" : अनामिका प्रकाशन) : असंख्य नामी-गिरामी इस्लामी नेता बटवारे के कठोर विरोधी थे। जिन्ना अकेले पड़ गए थे। तब भी भारत क्यों टूटा? गौर करें उन दारुल इस्लाम के भारतीय विरोधियों के नाम पर। सिंध के मुख्यमंत्री गुलाम हुसैन हिदायतुल्ला ने तकसीम के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। पंजाब के प्रधानमंत्री मलिक खिजर हयात तिवाना ने इसे पंजाब प्रांत और जनता को विभाजित करने की एक चाल के रूप में देखा। उनका मानना था कि पंजाब के मुस्लिम, सिख और हिंदू सभी की संस्कृति एक समान थी और वे धार्मिक अलगाव के आधार पर भारत को विभाजित करने के खिलाफ थे। मलिक खिजर हयात, जो खुद एक नेक मुस्लिम थे, ने अलगाववादी नेता मुहम्मद अली जिन्ना से कहा : "वहां हिंदू और सिख तिवाना हैं, जो मेरे रिश्तेदार हैं। मैं उनकी शादियों और अन्य समारोहों में जाता हूं। मैं उन्हें दूसरे राष्ट्र वाला कैसे मान सकता हूं ?" ढाका के नवाब के आदि भाई ख्वाजा अतीकुल्लाह ने तो 25,000 हस्ताक्षर एकत्र किए और विभाजन के विरोध में एक ज्ञापन प्रस्तुत किया था।

पूर्वी बंगाल में खाकसार आंदोलन के नेता अल्लामा मशरिकी को लगा कि अगर मुस्लिम और हिंदू सदियों से भारत में बड़े पैमाने पर शांति से एक साथ रहते थे, तो वे स्वतंत्र और एकजुट भारत में भी ऐसा ही कर सकते थे। उनका मानना था कि अलगाववादी नेता "सत्ता के भूखे थे और ब्रिटिश एजेंडे की सेवा करके अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए मुसलमानों को गुमराह कर रहे थे।"

सिंध के मुख्यमंत्री अल्लाह बख्श सूमरो मजहबी आधार पर विभाजन के सख्त विरोधी थे। सूमरो ने घोषणा की कि "मुसलमानों को उनके धर्म के आधार पर भारत में एक अलग राष्ट्र के रूप में मानने की अवधारणा ही गैर-इस्लामिक है।" मौलाना मज़हर अली अज़हर ने जिन्ना को काफिर-ए-आज़म ("महान काफिर") कहा। जमात-ए-इस्लामी के संस्थापक मौलाना अबुलअला मौदुदी का तर्क था कि पाकिस्तान की अवधारणा ही उम्माह के सिद्धांत का सरासर उल्लंघन करती है। पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत के मुख्यमंत्री डॉ. खान साहब अब्दुल जब्बार खान भारत में ही रहना चाहते थे। उनके अग्रज थे सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान जो ताउम्र पाकिस्तानी जेल में रखे गए थे। कांग्रेसी मुसलमान जो विभाजन के कट्टर विरोधी रहे उनमें थे मौलाना अबुल कलाम आजाद, डॉ. जाकिर हुसैन, रफी अहमद किदवई आदि।

जिन्ना के कट्टर समर्थकों ने भी भारत में ही रहना पसंद किया था। मसलन राजा महमूदाबाद अमीर हसन खान, बेगम कुदुसिया अयाज रसूल जो यूपी की विधान परिषद सदस्या थीं, और मेरठ के नवाब मुहम्मद इस्माइल खान। यह नवाब साहब तो जिन्ना के बाद मुस्लिम लीग के अध्यक्ष बनने वाले थे। तीनों के सामने प्रश्न था दारुल इस्लाम में जाएं अथवा दारुल हर्ब में रहकर भारत में अपनी जायदाद बचाएं। मजहब दोयम दर्जे पर आ गया था। पैसा प्यारा था।

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