कोर्ट की तीव्र टिप्पणी के बाद विजयन पद छोड़ें!



--के• विक्रम राव
अध्यक्ष - इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स।

केरल के कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री पिनरायी विजयन में तनिक भी सियासी शर्म और दिमागी नैतिकता बची हो तो तत्काल उन्हें पदत्याग देना चाहिये। सुप्रीम कोर्ट ने कल (30 नवम्बर 2023) उन्हें अपने गृहजिले कन्नूर विश्वविद्यालय के कुलपति की नियुक्ति में अनाचार करने तथा अवैध दखल करने का दोषी करार दिया है। कानून का उन्होंने मखौल उड़ाया है। राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान पर अवांछनीय दबाव डालने का इलजाम लगाया है। प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की खण्डपीठ ने कुलपति गोपीनाथ रवींद्रन की नियुक्ति को अवैध बताया तथा निरस्त कर दिया। खण्डपीठ के दो अन्य न्यायमूर्ति थे जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्रा।

कुलपतियों की नियुक्ति पर वाममोर्चा सरकार का हस्ताक्षेप बढ़ता जा रहा है। कन्नूर विश्वविद्यालय इसका ताजा उदाहरण है। राज्यपाल ही विश्वविद्यालय का कुलाधिपति होता है। किन्तु कन्नूर विश्वविद्यालय एक्ट 1996 में अधिकारों की स्पष्ट विवेचना में राज्यपाल किसी भी प्रकार से बाध्य नहीं है। यहा सुप्रीम कोर्ट ने कहा भी कि राज्य शिक्षा मंत्री (श्रीमती आर बिन्दु) का परामर्श कुलाधिपति पर अनिवार्य नहीं है। खण्डपीठ ने अचरज व्यक्त किया कि राज्यपाल ने मुख्यमंत्री के सुझाव को मानकर नियुक्ति वाला अपना अधिकार संकुचित कर दिया यह अप्रत्याशित है।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में केरल राजभवन की वह विज्ञाप्ति का भी उल्लेख किया जिसमें राज्यपाल ने लिखा था : ''श्री रवींद्रन की नियुक्ति का निर्णय स्वयं मुख्यमंत्री तथा उनकी उच्च शिक्षा मंत्री श्रीमती आर बिन्दु ने किया था।'' राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने कहा भी था कि पिनराई विजयन राजभवन आये थे और कन्नूर विश्वविद्यालय के कुलपति की नियुक्ति का अनुरोध किया था। बिन्दु भी दो बार लिखकर आग्रह कर चुकी हैं।

अंतत: सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में ''राज्य के अनुचित हस्तक्षेप'' के आधार पर डा. गोपीनाथ रवींद्रन को वीसी के रूप में फिर से नियुक्त करने वाली 23 नवम्बर, 2021 की अधिसूचना को रद्द कर दिया था।

अदालत ने कन्नूर विश्ववि‌द्यालय की स्वायत्तता पर जोर देते हुए कहा कि कन्नूर विश्ववि‌द्यालय अधिनियम 1996 और यूजीसी क़ानून संस्थान को राज्य सरकार के हस्तक्षेप से बचाने के लिए बनाए गए थे। इसमें इस बात पर जोर दिया गया कि चांसलर, जो विश्वविद्यालय में एक महत्वपूर्ण भूमिका रखता है, स्वतंत्र रूप से कार्य करता है और अपनी विवेकाधीन शक्तियों के प्रयोग में राज्य सरकार की सलाह से बाध्य नहीं है।

फैसले ने चांसलर और राज्य सरकार के अलग-अलग प्राधिकारों पर प्रकाश डाला, जिसमें कहा गया कि चांसलर ने विश्वविद्यालय के प्रमुख के रूप में अपनी व्यक्तिगत क्षमता में काम किया, न कि राज्यपाल के कार्यालय के प्रतिनिधि के रूप में। कुलाधिपति की शक्तियां, विशेषकर कुलपति की नियुक्ति और पुनर्नियुक्ति में, पूरी तरह से विश्वविद्यालय के हित में प्रयोग की गई मानी जाती थीं, कुलाधिपति इन मामलों में एकमात्र न्यायाधीश होता था।

यह माना गया कि यद्यपि राज्यपाल के रूप में अपने पद के आधार पर, वह विश्ववि‌द्यालय के कुलाधिपति बन गए, लेकिन अपने कार्यालय के कार्यों का निर्वहन करते समय, उन्होंने व्यक्तिगत रूप से राज्यपाल के कार्यालय का कोई कर्तव्य नहीं निभाया या किसी शक्ति का प्रयोग नहीं किया। कोर्ट ने कहा- ''कानून दो अलग-अलग प्राधिकारियां, अर्थात् कुलाधिपति और राज्य सरकार के बीच स्पष्ट अंतर करता है। जब विधायिका जानबूझकर ऐसा अंतर करती है, तो इसकी भी स्पष्ट रूप से व्याख्या की जानी चाहिए, और उप-के मामले से निपटते समय- कुलाधिपति, राज्यपाल, विश्वविद्यालय के कुलाधिपति होने के नाते, केवल अपनी व्यक्तिगत क्षमता में कार्य करते हैं, और इसलिए, कुलाधिपति के रूप में, विश्ववि‌द्यालय से संबंधित एक क़ानून के तहत उनके द्वारा प्रयोग और निष्पादित की जाने वाली शक्तियों और कर्तव्यों का अभ्यास से कोई संबंध नहीं है। और राज्य के राज्यपाल के रूप में पद पर रहते हुए उनके द्वारा शक्तियों और कर्तव्यों का पालन।"

अपने फैसले में, अदालत ने आगे कहा कि 1996 के अधिनियम की योजना और संबंधित कानून के अनुसार, चांसलर की भूमिका नाममात्र से कहीं अधिक मानी जाती है। निर्णय ने फिर से पुष्टि की कि नियुक्ति प्रक्रिया में चांसलर मंत्रिपरिषद से परामर्श करने के लिए बाध्य नहीं है, विश्ववि‌द्यालय से संबंधित मामलों में चांसलर द्वारा प्रयोग किए जाने वाले व्यक्तिगत विवेक पर जोर दिया गया है।

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