सिलाई मशीन की लंबी यात्रा! अमरीका से भारत तक का दौर!!



--के• विक्रम राव,
अध्यक्ष - इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स।

कभी यह स्नेहिल उक्ति परिवार में सुनाई दिया करती थी : “सुई में धागा आजकल मां नहीं डाल पा रही है।” मतलब गूढ़ लगता था। पर था निहायत सरल। मां को बहू की दरकार है। शादी कर लें, वगैरह। हालांकि उपयोगिता की ओट में ही ऐसा संदर्भ रचा गया होगा।

आज के दिन ऐसा प्रकरण बड़ा समीचीन है। क्योंकि इसी दिन (27 अक्टूबर 2023), ठीक 212 वर्ष बीते, विश्व की पहली सिलाई मशीन ने आकार लिया था। अमरीकी रंगमंच के अभिनेता से आविष्कारक बने आइजेक मेरिट सिंगर का जन्म न्यूयॉर्क जिले के पिट्सटाउन में इसी तारीख को हुआ था। जर्मन मां तथा अमेरिकी पिता के इस पुत्र ने अपनी खोज से विश्व के वस्त्र उद्योग में क्रांति ला दी। बल्कि एक अद्भुत कला (टांका डालना और सीयन करना) को सुगम बना दिया। परिधान की आकृतियों को ज्यादा आकर्षक बना दिया। करोड़ों को रोजगार मिल गया। सौंदर्य प्रदर्शन के क्षेत्र में नया आयाम जुड़ गया। विकास और नवाचार का सफर अनवरत चल रहा है।

इसहाक सिंगर का नारा : “हर घर में एक मशीन” भी तेजी पकड़ता रहा। मशीन भी अमेरिका से चलकर यूरोप होते हुये उपनिवेशिक एशिया तथा अफ्रीका तक फैली। फिर तो पेटेंट और लाइसेंस व्यवस्था भी आ गई। औद्योगिक क्रांति की गति से और चक्र (पहिया) की आविर्भाव से अन्वेषण प्रक्रिया तेज हो गई।

यूं तो प्रारंभ से ही सुई का रिश्ता-नाता सिलाई से रहा। मगर उसके आकार, डिजाइन और प्रयोग भिन्न-भिन्न होते थे। सुई का उल्लेख तो सदियों पूर्व बाइबिल में भी आया था। संत मैथ्यू ने 19वें अध्याय, दोहा 24 में कहा था कि “ईश्वर की अनुकंपा हो जाए तो ऊंट भी सुई की छेद पार कर लेगा। भले ही अमीर आदमी धन के बावजूद स्वर्ग में प्रवेश नहीं कर पाए।” मगर अंग्रेजी कवियित्री ईस्थर लीविस ने ऐतराज किया था कि “स्वार्थी पुरुषों ने सुई को स्त्री का प्रतीक बनाकर, कलम को पौरुष का पर्याय कह कर लैंगिक विषमता को गहराया था।” हालांकि सिलाई मशीन वाला उद्योग भले ही पुरुषों ने विकसित किया हो पर प्रचार-प्रसार तो महिलाओं के कारण ही हुआ। मशीन के उपभोक्ता वाली एक नई उपजाति भी पैदा हो गई। वे सब दर्जी कहलाए। यह एक व्यावसायिक जाति है। वे दोनों धर्मों के होते हैं। हिंदू और मुसलमान। यूं दर्जी अल्फाज की उत्पत्ति फारसी के “दारजान” से हुई है। मायने हैं सिलाई करने वाला। यह इस्लामी सल्तनत के युग से दिल्ली में बसे थे। दक्षिण एशिया से आए थे। इस समुदाय का नाम पड़ा हजरत इदरीस पर जो प्राचीन पैगंबर थे। कुरान में वर्णित हैं। उन्हें "भरोसेमंद" और "धैर्यवान" बताया गया है। कुरान यह भी कहता है कि उन्हें "उच्च पद पर आसीन किया गया था"। आदम और नूह के बीच रखा जाता है। इदरीस की अद्वितीय स्थिति ने इस्लामी लोककथाओं में उसके आसपास की कई भविष्य की परंपराओं और कहानियों को प्रेरित किया।

आविष्कारक इसहाक सिंगर की जीवनगाथा बड़ी रोमांचिक है। उधार मांगकर उसने अपने अन्वेषण को किया था। जब उसकी मृत्यु हुई तो तेरह मिलियन डॉलर की संपत्ति छोड़ी जो उसके बीस संतानों में बटी थी। यूं तो सिंगर से पहले वाल्टर हंट और एलियास होवे सहित कई अन्य लोगों ने सिलाई मशीनों का पेटेंट कराया था, लेकिन सफलता उनकी मशीन की ही थी। व्यावहारिकता, घरेलू उपयोग के लिए अनुकूल हो और किश्तों के सरल भुगतान की वजह से।

एक बार जब प्रगति की रफ्तार तेज हुई तो फिर सिंगर को मुड़कर देखने की नौबत नहीं पड़ी। सिलाई मशीनों का तब बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू हुआ। आईएम सिंगर एंड कंपनी ने 1856 में 2,564 मशीनें और 1860 में न्यूयॉर्क में मॉट स्ट्रीट पर एक नए संयंत्र में 13,000 मशीनें बनाईं। बाद में, एलिजाबेथ, (न्यू जर्सी) से एक विशाल संयंत्र बनाया गया।

सिलाई मशीन के परिवेश में कपड़ा तथा परिधान-उद्योग का उल्लेख स्वाभाविक है। मसलन हड्डी की सुइयां तो आज से बत्तीस हजार वर्ष पूर्व पाई गई थीं। पोशाकें बनती थीं। वल्कल वस्त्र भी था। सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों ने सबसे पहले कपड़े बुनने का आविष्कार किया था। अगर इस सभ्यता के कालक्रम की बात करे तो यह 3300 ईसा वर्ष पूर्व से 1750 वर्ष पूर्व तक विद्यमान थी। सबसे पहले कपास उगाने के श्रेय सिंधु लोगो को दिया जाता है। इसी लिए यूनानियों ने कपास को सिंडन नाम दिया जो इंडस में बना है।

अर्थात इतना तो स्वयंसिद्ध है कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शोषण के पूर्व भारत का परिधान उद्योग विकास के उत्कर्ष पर था। उदाहरणार्थ ढाके की मलमल की साड़ियां। घटना है मुगल बादशाह आलमगीर औरंगजेब के दौर की। एक बार ढाके के जुलाहे ने राजकुमारी जेबुन्नीसा को सुंदर मलमल की साड़ी भेंट की। उसे पहनकर बेटी पिता के दरबार में गई, तो बादशाह ने उसे डांटा कि : “भरे दरबार में अंग प्रदर्शन करते शर्म नहीं आई।” शर्माकर जेबुन्नीसा ने बताया कि ढाके की मलमल की साड़ी के सात परत लपेटकर आई है। इस मलमल की साड़ी को जुलाहे अपने अंगूठे के नाखून में छेद कर, उसमें से निकाल कर बुनते थे। इतना महीन और बारीक। ताकि मैंचेस्टर मिलों के कपड़ों के बिना प्रतिद्वद्विता के एशिया में बिक्री हो, अतः ब्रिटिश राज ने ढाका के जुलाहों की कलाइयां ही कटवा दी। बांग्लादेश ने इस कला को जीवित किया।

सिलाई मशीन के सिलसिले में यहां इतना और जिक्र हो कि भारत में भले ही इसहाक सिंगर के काल से मशीन आई हो पर परिधान उद्योग एशिया में यूरोप से सदियों पूर्व विकसित था। महाभारत काल में खासकर। भारत तथा चीन से रेशम का निर्यात होता था। गरम मसाले के अलावा वस्त्रों के आकर्षण के कारण भी ये यूरोपीय साम्राज्यवादी इन एशियाई राष्ट्रों में हमला करते थे। हालांकि व्यापार के पैमाने पर बिजली और औद्योगिक क्रांति पहले आने का लाभ इन यूरोपीय देशों के लिए बड़ा मुफीद था। पावरलूम से स्पर्धा में हथकरधा तो पिछड़ जाएगा ही। यही एशिया का इतिहास रहा।

ताजा समाचार

National Report



Image Gallery
राष्ट्रीय विशेष
  India Inside News