--के• विक्रम राव,
अध्यक्ष - इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवतजी का इस बार का लखनऊ प्रवास (गत सप्ताह) बड़ा यादगार रहेगा। यूं तो वे कई बार अवध प्रांत आ चुके हैं। बहुधा भेंट और चर्चा भी हुयी है। पर इस यात्रा पर उनका खास बल समरसता पर अधिक था। उनका चिंतन, सोच, उदगार और धारणा खूब बोधगम्य रही। समावेशी और सर्वहितकारी भी। शायद यही मूल रहा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सूत्र का : “सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास”। अर्थात एक भी भारतवासी छूटेगा नहीं।
भागवतजी लखनऊ में चार दिन रहे। वैचारिक समागम, बल्कि संवाद, बृहद् पैमाने पर था। समाज के लगभग हर तबके के लोगों से मिले। अंतिम दिवस (25 सितंबर 2023) की बैठक में सरसंघचालकजी लखनऊ के विशिष्ट नागरिकों से मिले। इनमें शिक्षा, चिकित्सा, समाजसेवा, मीडिया आदि के लोग आहूत थे। मुझे भी मौका मिला, संवाद का। यूं तो भागवतजी ने बड़े साफ तौर पर कह दिया कि विदेश नीति अथवा किसी भी विषय पर भारत सरकार को सलाह देने का इरादा संघ का कभी भी नहीं रहा। मगर मेरे प्रश्न पूछे जाने पर कि भारत के टूटे-कटे भूभाग में हो रहे जनविद्रोह पर उनकी कैसी अवधारणा रही? मैं जानना चाहता था कि पाक-अधिकृत कश्मीर की जनता भारतीय कश्मीर में शामिल होना चाहती है। वहां की जनता की मांग है कि कारगिल का मार्ग खोल दिया जाए। विभाजित कश्मीर का एकीकरण हो सके। इसी भांति बलूचिस्तान में भी इस्लामी पंजाबी सत्ता के खिलाफ विद्रोह चल रहा है। ये बलूची लोग आजादी चाहते हैं। इस बीच अफगन पठान भी डूरंड सीमा को पार कर पाकिस्तान से भूभाग मांग रहे हैं। उन सबका पाकिस्तानी सेना क्रूर दमन कर रही है। इस मुद्दे पर भागवतजी की उक्ति स्पष्ट थी : “उत्पीड़ित राष्ट्रों और जनता की भारत को निस्संदेह सहायता करनी चाहिए।” संघ प्रमुख ने तर्क देते हुये कहा कि स्वाधीनता-संघर्षरत पूर्वी पाकिस्तान की जनता के हित में भारत सरकार ने 1971 में अपनी सेना भेजी थी। बांग्लादेश की जनता को मुक्ति दिलाई थी। यही नीति फिर लागू होनी चाहिए।
यूं तो डॉ. मोहनराव मधुकर भागवतजी से मेरी भेंट 1976 से है। तब मैं नागपुर में “टाइम्स आफ इंडिया” के ब्यूरो में बड़ौदा से भेजा गया था। इंदिरा गांधी काबीना के सूचना मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने मेरा तबादला कराया था। गुजरात में जनता मोर्चा सरकार थी। महाराष्ट्र में कांग्रेसी। वहीं से मुझे जेल ले जाया गया। उस अंधेरे दौर (इमरजेंसी) में कई राजनेताओं, अधिकतर भूमिगत, से भेंट होती रही। भागवतजी भी भूमिगत थे। वे वेटिनेरी पशु चिकित्सा की डिग्री को अधूरा छोड़कर पूर्णकालिक स्वयंसेवक बन गए थे। सर्वाधिक कम उम्र के थे।
परंपरागत विचार और मान्यतायें को नए युग में परिमार्जित करना ही उनका लक्ष्य रहा। उदाहरणार्थ उन्हींने “बंच ऑफ़ थॉट्स” (रचयिता : स्व. माधव सदाशिव गोलवलकर) को संशोधित किया। हिन्दु समाज में जातीय असमानताओं के सवाल पर भागवतजी ने कहा है कि “अस्पृश्यता के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए।”
कुछ मायने में भागवतजी का कार्यकाल संघ के इतिहास में युगांतरकारी कहलाएगा क्योंकि कई पुराने अभिमत, आशय, मान्यताएं और पैमानों को वर्तमान रोशनी में उनके द्वारा मूल्यांकन हो रहा है। उनका दौर युगांतकारी भी है क्योंकि नयी सोच और नूतन परिभाषाओं को वे गढ़ रहे हैं। नई इनिंग्स का आगाज है। शायद जनरव और युगधर्म का तकादा है। मेरे निजी आंकलन में भागवतजी ने संघ की चिंतन-मनन शैली को षडकोणीय बना दिया है। उनके पहले यह मात्र त्रिकोणीय थी। आज विचार की सीमा वृहद, संवरित, संवलित और ज्यादा सामंजस्यपूर्ण है। उदाहरणार्थ बहुधा मुसलमानों के प्रति संघ के रवैये पर प्रश्न उठते रहते हैं। भागवतजी ने बड़े जोरदार और सटीक ढंग से इस मिथक पर प्रहार किया। इसी परिवेश में उनसे मेरा सवाल था कि उन्हें “राष्ट्र ऋषि” कहा था अखिल भारतीय इमाम संगठन के प्रमुख उमर अहमद इलियासी ने। आरएसएस प्रमुख ने इलियासी से नई दिल्ली में कस्तूरबा गांधी (केजी) मार्ग पर एक मस्जिद में मुलाकात की थी। एक चैनल को दिए इंटरव्यू में भागवतजी ने कुछ समय पहले कहा था : “भारत के हिंदू और मुसलमान का डीएनए एक है और मुसलमान के बिना हिंदुस्तान पूरा नहीं होता।” भागवत जी का खुला विचार है कि भारत में मुसलमान पराए नहीं हैं। मात्र उपासना पद्धति भिन्न होने से भारतीय अलग नहीं जाते। आखिर सभी के पूर्वज हिंदू ही तो थे।
यहां भागवतजी का (2 जून 2022) बयान बड़ा कारगर था : “हर मस्जिद तले शिवलिंग कृपया न तलाशें।” अपने विरोधियों को भी साथ लेने की प्रवृत्ति पर वे बल देते रहे। उन्होंने बताया : “हिंदुस्तान एक हिंदू राष्ट्र है और यह एक सच्चाई है। वैचारिक रूप से, सभी भारतीय हिंदू हैं और हिंदू का मतलब सभी भारतीय हैं। वे सभी जो आज भारत में हैं, वे हिंदू संस्कृति, हिंदू पूर्वजों और हिंदू भूमि से संबंधित हैं, इनके अलावा और कुछ नहीं।”
भागवतजी का सुविचारित कथन था कि शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो। उनका अनुरोध था कि प्रत्येक भारतीय को एक अन्य भारतीय भाषा सीखनी चाहिए। उनका उत्तर आया जब मैं ने कहा था कि हिंदीभाषी प्रदेशों में बेईमानी हो रही है। त्रिभाषा-फॉर्मूला को विकृत कर दिया गया है। छात्र हिंदी, अंग्रेजी तथा संस्कृत चयनित करते हैं। संघ प्रमुख ने कहा कि एक दक्षिण भारतीय भाषा अथवा बांग्ला भी पढ़नी चाहिए। संघ प्रमुख की राय में सीखने की कोई आयु सीमा नहीं होती। पूर्व राष्ट्रपति स्व. एपीजे अब्दुल कलाम अस्सी की उम्र में भी वीणा सीख रहे थे। भागवत जी का अनुरोध था कि ज्ञानोपार्जन एक निरंतर प्रक्रिया है। चलती रहनी चाहिए। हम श्रमजीवी पत्रकारों हेतु उनका यह परामर्श बड़ा महत्वपूर्ण है, उपयोगी भी!