यहां जलती चिताओं के सामने नाचती है नगरबधूऐं



--अभिजीत पाण्डेय,
पटना - बिहार, इंडिया इनसाइड न्यूज़।

काशी के जिस मणिकर्णिका घाट पर मौत के बाद मोक्ष की तलाश में मुर्दों को लाया जाता है वहीं पर ये तमाम नगरवधुएं जीते जी मोक्ष हासिल करने आती हैं। वो मोक्ष जो इन्हें अगले जन्म में नगरवधू ना बनने का यकीन दिलाता है। इन्हें यकीन है कि अगर इस एक रात ये जी भरके यूं ही नाचेंगी तो फिर अगले जन्म में इन्हें नगरवधू का कलंक नहीं झेलना पड़ेगा.......

काशी में सती के वियोग में भगवान शिव ने कभी तांडव किया था। उस समय यहां सती के कान की मणि गिरी थी। जहां वह मणि गिरी उस जगह का नाम मणिकर्णिका घाट पड़ गया। तबसे लेकर आज तक चैत्र नवरात्री की सप्तमी को नगरवधुएं इस जगह पर रात भर नृत्य करती हैं और उनके पांव के घुंघरू यहां टूट कर बिखरते हैं। आज के दिन नगरवधुएं पैसों के लिए मांग नहीं करती, बल्कि महाश्मशान पर अपना जलवा बिखेरने के लिए नगरवधुओं मे बकायदा होड़ मची रहती है।

नवरात्रि की सप्तमी तिथि को बाबा महाश्मशान का वार्षिक श्रृंगारोत्सव मनाया जाता है। इस दौरान सुबह-सवेरे बाबा की भव्य आरती के बाद शाम ढलते-ढलते नगर वधुएं पहले स्वरंजली प्रस्तुत करती हैं, इसके बाद शुरू होता है धधकती चिताओं के बीच घुंघरुओं की झंकार का सिलसिला। ‘जिंदगी’ और ‘मौत’ का एक साथ एक ही मुक्ताकाशीय मंच पर प्रदर्शन किसी को भी आश्चर्य से भर सकता है।

मान्यता है कि इस महानिशा को महा श्मशान पर नृत्य करने वाली नगरवधुओं को उनके अगले जन्म में इज्जत भरी जिंदगी जीने का सौभाग्य प्राप्त होता है। तवायफें यहां पूरी रात फिल्मी गीतों पर ठुमके लगाती हैं और भगवान शिव से प्रार्थना करती हैं कि अगले जन्म में उन्हें इस तरह का काम नहीं करना पड़े। 351 साल पुरानी एक पराम्‍परा है जिसमें वैश्‍याएं पूरी रात यहां जलती चिताओ के पास नाचती है और थिरकती है। साल में एक बार एक साथ चिता और महफिल दोनों का ही गवाह बनता है काशी का मणिकर्णिका घाट। चैत्र नवरात्रि अष्टमी को सजती है इस घाट पर मस्ती में सराबोर एक चौंका देने वाली महफ़िल। एक ऐसी महफ़िल जो जितना डराती है उससे कहीं ज्यादा हैरान करती है। कहते हैं महा श्मशान मे सजने वाली नगरवधुओं की इस महफिल का इतिहास राजा मानसिंह से जुड़ा हुआ है। शहंशाह अकबर के समय में राजा मान सिंह ने 16वीं शताब्दी में इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था। निर्माण के बाद वहां भजन-कीर्तन होना था पर श्मशान होने की वजह से यहां कोई भी ख्यातिबद्ध कलाकर आने को राजी नहीं हुआ। सभी ने आने से इनकार कर दिया। बाद में नगर वधुओं ने यहां अपनी कार्यक्रम करने की इच्छा जाहिर की और राजा ने उनके इस आमंत्रण को स्वीकार कर लिया। तब से नगर वधुओं के नृत्य की परम्परा शुरू हुई। शिव को समर्पित गणिकाओं की यह भाव पूर्ण नृत्यांजली मोक्ष की कामना से युक्त होती है।

मान्यता है कि राजा मान सिंह ने राजस्थान के कारीगरों से काशी का नवनिर्माण कराया है। इतिहासकार मानते हैं कि अकबर के इस सेनापति ने बनारस में एक हजार से ज्यादा मंदिर और घाट बनवाये, मानसिंह के बनवाये घाटों में सबसे प्रसिद्द मानमंदिर घाट है इसे राजा मानसिंह ने बनवाया था। बाद में जयसिंह ने इसमें वेधशाला बनवाई। बनारस में अनुश्रुति है कि राजा मानसिंह ने एक दिन में एक हजार मंदिर बनवाने का निश्चय किया, फिर क्या था उनके सहयोगियों ने ढेर सारे पत्थर लाये और उन पर मंदिरों के नक़्शे खोद दिए। इस तरह राजा मानसिंह का प्रण पूरा हुआ।

अम्बर के राजा मानसिंह और बनारस का नाता आज भी पूरे शहर में नजर आता है। मानसिंह के वक्त की सबसे प्रसिद्द घटना विश्वनाथ मंदिर की पुनः रचना की है, अकबर ने पुनर्निर्माण का काम मानसिंह को सौंपा था। लेकिन जब मानसिंह ने विश्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाना शुरू किया तो तो हिन्दुओं ने उनका विरोध करना शुरू कर दिया। गौरतलब है कि हुसैन शाह शर्की (1447-1458) और सिकंदर लोधी (1489-1517) के शासन काल के दौरान एक बार फिर इस मंदिर को नष्ट कर दिया गया था। हिन्दू रूढ़िवादियों का कहना था कि मानसिंह ने अपनी बहन जोधाबाई का विवाह मुग़लों के परिवार में किया है वो इस मंदिर का निर्माण नहीं करवा सकते, जब मानसिंह ने यह सुना तो निर्माण कार्य रुकवा दिया। लेकिन बाद में मानसिंह के साथी राजा टोडर मल ने अकबर द्वारा की गयी वित्त सहायता से एक बार फिर इस मंदिर का निर्माण करवाया।

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