जजों की नियुक्ति वाली कॉलेजियम पर विवाद: कानून मंत्री किरण रिजिजू और शीर्ष अदालत आमने सामने



--राजीव रंजन नाग,
नई दिल्ली, इंडिया इनसाइड न्यूज़।

न्यायाधीशों की नियुक्ति और संसद द्वारा संविधान के किन हिस्सों को बदला जा सकता है, इसे लेकर सरकार और न्यायपालिका के बीच विवाद ने रविवार को एक तीखा मोड़ ले लिया। केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने एक पूर्व न्यायाधीश की टिप्पणियों का हवाला देते हुए रेखांकित किया कि वह किस विचार पर विचार करते हैं "समझदार"।

दिल्ली उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश आरएस सोढ़ी ने लॉस्ट्रीट भारत यूट्यूब चैनल के साथ एक साक्षात्कार में कहा, "सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार संविधान को हाईजैक किया है। उन्होंने कहा कि हम खुद (न्यायाधीशों) की नियुक्ति करेंगे। इसमें सरकार की कोई भूमिका नहीं होगी।"

"उच्च न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय के अधीन नहीं हैं लेकिन, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय को देखना शुरू करते हैं और अधीन हो जाते हैं।" उन्होंने यह समझाते हुए कहा कि उन्हें क्यों लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के एक पैनल की प्रणाली, जिसे कॉलेजियम कहा जाता है, नियुक्त करता है। रिजिजू ने अपने ट्विटर हैंडल पर साक्षात्कार की क्लिप पोस्ट करते हुए लिखा, "एक न्यायाधीश की आवाज... भारतीय लोकतंत्र की असली सुंदरता इसकी सफलता है। लोग अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से खुद पर शासन करते हैं। निर्वाचित प्रतिनिधि लोगों के हितों और कानूनों का प्रतिनिधित्व करते हैं।" हमारी न्यायपालिका स्वतंत्र है और हमारा संविधान सर्वोच्च है।" उन्होंने कहा, "वास्तव में, अधिकांश लोगों के समान विचार हैं। यह केवल वे लोग हैं जो संविधान के प्रावधानों और लोगों के जनादेश की अवहेलना करते हैं और सोचते हैं कि वे भारत के संविधान से ऊपर हैं।"

न्यायपालिका और सरकार के बीच लंबे समय से चली आ रही असहमति में यह बयान नवीनतम है जो हाल के महीनों में तेज हो गया है। श्री रिजिजू द्वारा उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की टिप्पणियों से, न्यायाधीशों की नियुक्ति पर अंतिम शब्द मानने वाले न्यायाधीशों की प्रणाली को बदलने के लिए न्यायपालिका पर दबाव बढ़ गया है।

सरकार ने न्यायाधीशों की नियुक्ति में एक बड़ी भूमिका का आह्वान किया है। इसकी वीटो शक्ति की कमी पर सवाल उठाया है, और संविधान के कुछ सिद्धांतों को इसकी "मूल संरचना" के रूप में घेरने की आलोचना की है। पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने कुछ नियुक्तियों को लेकर सरकार के कड़े विरोध के बाद जजों की पदोन्नति पर केंद्र के साथ अपने संवाद को सार्वजनिक करने का अभूतपूर्व कदम उठाया, जिसमें एक वकील भी शामिल है, जो भारत का पहला खुले तौर पर समलैंगिक न्यायाधीश बन सकता है।

जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम द्वारा भेजे नामों को मंज़ूर करने में केंद्र की देरी से जुड़े मामले में सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा कि जब तक यह प्रणाली है, हमें इसे लागू करना होगा। पीठ ने अटॉर्नी जनरल से यह भी कहा कि कोर्ट द्वारा कॉलेजियम पर सरकार के लोगों की टिप्पणियों को उचित नहीं माना जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली इस देश का कानून है और इसके खिलाफ टिप्पणी करना ठीक नहीं है। शीर्ष अदालत ने कहा कि उसके द्वारा घोषित कोई भी कानून सभी हितधारकों के लिए “बाध्यकारी” है और कॉलेजियम प्रणाली का पालन होना चाहिए। उन्होंने अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी को इस बारे में सरकार को राय देने को कहा है। उसने कहा कि कॉलेजियम ने जिन 19 नामों की सिफारिश की थी, उन्हें सरकार ने हाल में वापस भेज दिया।

पीठ ने कहा, ‘यह ‘पिंग-पांग’ का खेल कैसे खत्म होगा? शीर्ष अदालत ने कहा था कि अगर समाज का एक वर्ग तय करना शुरू कर देगा कि किस कानून का पालन होगा और किस का नहीं तो अवरोध की स्थिति बन जाएगी। पीठ ने कहा कि अदालत को इस बात से परेशानी है कि कई नाम महीनों और सालों से लंबित हैं जिनमें कुछ ऐसे हैं जिन्हें कॉलेजियम ने दोहराया है। शीर्ष अदालत ने 28 नवंबर को उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम की सिफारिश वाले नामों को मंजूरी देने में केंद्र द्वारा देरी पर अप्रसन्नता जताई थी। शीर्ष अदालत ने 2015 के अपने एक फैसले में एनजेएसी अधिनियम और संविधान (99वां संशोधन) अधिनियम, 2014 को रद्द कर दिया था, जिससे शीर्ष अदालत में न्यायाधीशों की नियुक्ति करने वाली न्यायाधीशों की मौजूदा कॉलेजियम प्रणाली बहाल हो गई थी।

बीते कुछ समय से कॉलेजियम प्रणाली सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार के बीच गतिरोध का विषय बन गया है। कानून मंत्री रिजिजू लगातार कॉलेजियम प्रणाली पर निशाना साधते रहे हैं।

बीते 7 दिसंबर को उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने संसद में पारित राष्ट्रीय न्यायिक आयोग (एनजेएसी) कानून को सुप्रीम कोर्ट द्वारा खारिज किए जाने को लेकर अदालत पर निशाना साधा था। उन्होंने कहा था कि यह ‘संसदीय संप्रभुता से गंभीर समझौता’ और उस जनादेश का ‘अनादर’ है, जिसके संरक्षक उच्च सदन एवं लोकसभा हैं।

यह पहली बार नहीं था जब धनखड़ ने उपराष्ट्रपति बनने के बाद एनजेएसी को खत्म करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की आलोचना की है। बीते 2 दिसंबर को उन्होंने कहा था कि वह ‘हैरान’ थे कि शीर्ष अदालत द्वारा एनजेएसी कानून को रद्द किए जाने के बाद संसद में कोई चर्चा नहीं हुई। उससे पहले उन्होंने संविधान दिवस (26 नवंबर) के अवसर पर हुए एक कार्यक्रम में भी ऐसी ही टिप्पणी की थी। बीते नवंबर महीने में केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने कॉलेजियम व्यवस्था को ‘अपारदर्शी और एलियन’ बताया था। उनकी टिप्पणी को लेकर शीर्ष अदालत ने नाराजगी भी जाहिर की थी।

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