आनंददायक क्या होता है ?



--के• विक्रम राव
अध्यक्ष - इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स।

लेखक के लिए उसकी नई किताब का प्रकाशन नवजात संतान जैसा आह्लादप्रदायी होता है। अतः "वे दिन वे लोग", मेरी ताजा (बारहवीं किताब) ठीक वैसी ही खुशी दे रही है। अनामिका पब्लिशर्स, 21-ए अंसारी रोड, दरियागंज, दिल्ली, के पंकज शर्मा (फोन : 98683-45527) ने छापी है।

आप लोगों से अनुरोध है कि इस पुस्तक में एक लेख स्वाधीनता सेनानी, शेरे-आंध्र, मुख्यमंत्री रहे टंगटूरि प्रकाशम पर अवश्य पढ़ें। खुदगर्ज कांग्रेसियों द्वारा अपनी कथित कुर्बानियों का मुनाफा लेने की होड़ जब लगी थी, उस दौर में प्रकाशम तब (20 मई 1957) भूख से मर गए। तीसरे दिन घर पर वे मरे पाए गए। पोस्टमार्टम रपट में था कि पेट में अन्न नहीं था। जब हैदराबाद अस्पताल में उनका देहांत हुआ था, तो पता चला था कि वे कई दिनों से निराहार थे। फिर हैदरगुडा के उनके पड़ोसियों ने पाया कि उनकी रसोई में न ईधन था, न अनाज।

बात 1956 के ग्रीष्मावकाश की है। मेरे पिता स्व. श्री के. रामा राव नेहरु सरकार के पंचवर्षीय योजना के वरिष्ठ परामर्शदाता थे। मैं दिल्ली गया था। तभी प्रकाशम जी किसी कारणवश दिल्ली आये। डा. सर्वेपल्ली राधाकृष्णन से भेंट के लिये। उस गरम दोपहर को वे अपने साथ मुझे ले गये। वापसी पर उपराष्ट्रपति के भव्य बंगले के फाटक पर प्रकाशमजी की टिप्पणी अत्यधिक मार्मिक थी। वे बोले : ''यह है सर एस. राधाकृष्णन। ब्रिटिश राज ने इन्हें उपकार हेतु सर (नाइट) की उपाधि से नवाजा था। वे कभी भी शामिल नहीं रहे स्वाधीनता आंदोलन में। मुझे देखो। कितनी बार जेल भुगता। आंध्र के सभी लोग जानते है। मगर कहीं भी रहने का मेरा ठिकाना नहीं है।'' फिर रुके, व्यथा से मुझसे कहा : '' बुलाओ टैक्सी। साउथ एवेन्यु चलना है।'' तब मेरे पिताश्री का वही आवास था।

एक असली तथ्य यही है कि यदि यह किताब, मेरे विविध लेख-संकलन, आपके करकमलों में शोभित होती है, तो केवल मेरी भार्या डॉ. के. सुधा राव द्वारा ठेलने तथा धमकाने का सीधा परिणाम है। वर्ना मुझ जैसा काहिल और सुस्त कलमकार दास मलूका के अजगर से कम नहीं होता। सुधा को एक नेमत भी मिली है : चिकित्सिका वाली। नई दिल्ली के प्रतिष्ठित लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज से स्नातक बनकर, वह के.जी.एम.सी. (लखनऊ) से निश्चेतन शास्त्र (एनेस्थीसिया) में निष्णात बनी। बची कसर पिलानी के बिड़ला इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलॉजी से एम.फिल. डिग्री लेकर पूरी की। मनोरोग के निदान की कोई भी कसर छोड़ी नहीं। मेरी स्वर्गीय ज्योतिषी, वीणावादिनी मां के योगदान में जो कुछ कमी भी रह गई थी दिल्ली में बसी मेरी इकलौती बेटी विनीता श्रीवास्तव (दिल्ली मेट्रो की सीवीओ : मुख्य सतर्कता अधिकारी) ने दूर कर दी। मुंबई में प्रबंधक निष्णात (एक्सेंचुवर अमरीकी कंपनी के एम.डी.) सुदेव राव और लखनऊ में पत्रकार-पुत्र विश्वदेव, जो मीडिया में नारियल (कटोरे में कटोरा) जैसा पड़ा, मुझे मात ही दिया, हमेशा "बाप से भी गोरा"। अतः सिवाय लेख कलमबद्ध करने के मेरे पास आसरा ही क्या बचा था?

खास बात : प्रकाशक पंडित पंकज शर्मा (अनामिका प्रकाशन) के बारे में। उनका आग्रह हमेशा खांडसारी से सराबोर रहता है। अपनी बात मनवा ही लेते हैं। आप सुधी पाठकों से मेरा विशिष्ट अनुरोध है कि डॉ. धर्मवीर भारती पर लेख अवश्य पढ़िएगा। ऐसा संपादक-लेखक युगों में एक ही बार आता है।

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