माँ... पीड़ा की तरंगे



--प्रदीप फुटेला
उत्तराखंड, इंडिया इनसाइड न्यूज।

बात आज के दौर की हो या पिछले दौर की, बात बस जज़्बात की है, जज़्बातों को दिखाने का तरीका अलग-अलग है। जहाँ माँ बाप अपने बच्चों को उंगली पकड़ कर चलना सिखाते है, पर जब माँ बाप को उन्ही बच्चों की जरुरत होती है तो, वही बच्चे अपने माँ बाप को ठेंगा दिखते है। इन्ही जज्बातों के आधार पर लघु फिल्म "माँ पीड़ा की तरंगे" में कैसे एक माँ अपने बच्चों की खुशी के लिए दिन और रात नहीं देखती, और बदलते हुए हालातों के साथ उसके बच्चे भी बदल जाते है। हमारी कहानी की माँ अपनी हिम्मत न हारते हुए अपनी बहन की बहु को बेटी के रूप में स्वीकार करती है क्योंकि वो बहू, वो भी किसी की बेटी थी और आज इस घर की बहू है। और बहू बनकर आज सगी बेटी से भी बढ़कर अपना फ़र्ज़ अदा करती है। इस माँ के लिए वो गहने निकल कर उसके कदमो में रख देती है बिना किसी स्वार्थ के। ऐसी परिस्थिति को देखकर सबके रोंगटे खड़े हो जाते है। जो माँ अपने दोनों बेटों को सपने में परेशान देखकर उनकी मदद के लिए लाखों रुपये लेकर साथ आयी थी, अपने दोनों बेटो को अनुकूल न पाकर वो लाखों रूपए अपनी बहू क हाथ में थमाती है, और सब मिल कर बृद्धाश्रम बनबाने का निर्णय लेते है।

यह कहानी जज़्बातों को सींचती हुई और स्वार्थियों को एहसास दिलाने का माध्यम बनती है। यह कहानी सुषमा द्वारा लिखित और डॉ अभिलाषा प्रजापति द्वारा निर्मित-निर्देशित पूर्णता की खोज में अपूर्णता भरा प्रयास दर्शाता है।

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