जांच रपट हूबहू वैसी ही है जैसा मैंने मुरादाबाद में देखा, लिखा



--के• विक्रम राव,
अध्यक्ष - इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स।

इम्तहान का रिजल्ट आने के दिन सफल परीक्षार्थी उल्लसित होता है। मंगलवार 8 अगस्त 2023 वैसी ही उमंग की अनुभूति मुझे हई। मुरादाबाद दंगों पर यूपी विधानसभा में प्रस्तुत न्यायिक जांच रपट पढ़कर। अगस्त 1980 में 14 से 18 तारीखों के “टाइम्स ऑफ इंडिया” (दिल्ली संस्करण) के मुख्य पृष्ठ पर प्रकाशित (नामसहित) मेरी खबरें न्यायमूर्ति एम. पी. सक्सेना की जांच रपट के सारे निष्कर्षों से मेल खाती हैं। तब मेरा दावा था : “यह सारा हिंदू-मुसलमान फसाद हुआ कदापि नहीं है, बस कराया गया है।” जज सक्सेना ने भी यही पाया। तब मैंने लिखा था : “एक चौपाये के नाम पर इंसानी लाशें बिछा दी गईं।” यही अफवाह उड़ाई गई थी कि एक कीचड़ से लतपथ सूअर हजारों नमाजियों की भीड़ में घुस गया है। वह भी मस्जिद के परिसर में। माहौल अपावन ही नहीं, दूषित कर रहा है। मगर वाह! वह निषिद्ध पशु किसी को कभी भी दिखा ही नहीं! मारीचरूपी स्वर्ण मृग की भांति। मुरादाबाद में लगभग यही हुआ था। सूअर तो था ही नहीं, बस खबर उड़ा दी गई। नतीजन सौ से सवा सौ लोग मारे गए। अपार संपत्ति की क्षति हुई। बड़ी तादाद में लोग घायल हुए। लाभार्थी कौन रहा? दो खुर्राट मुस्लिमलीगी रहनुमा! ईद एक उत्सव होता है। सेवईं की मिठास लिए। इन मुस्लिम लीगियों ने उसे कड़ुआ कर दिया था।

मगर मेरी यह रिपोर्टिंग बिना व्यवसायिक तकरार के नहीं थी। उस शाम, तेंतीसवें स्वाधीनता दिवस के दो दिन पूर्व (13 अगस्त 1980), मुझे दिल्ली के टाइम्स ब्यूरो प्रमुख सी. सुब्बाराव का फोन आया कि स्थानीय संपादक गिरीलाल जैन चाहते हैं मैं तुरंत मुरादाबाद जांऊ। उपद्रव हो गया है। दंगे हो रहे हैं। तब तक कांग्रेसी मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह से मुझे सूचना मिल चुकी थी कि पश्चिमी यूपी में तनाव फैल रहा है। मैंने अपने चीफ से आग्रह किया था कि दिल्ली से मुरादाबाद केवल पौने दो सौ किलोमीटर है जो चार घंटे में तय किया जा सकता है। जबकि लखनऊ से साढे तीन सौ किलोमीटर मोटरकार से सात घंटे लगेंगे। ऊपर से उस दिनभर के प्रदेशीय समाचार भी लिखकर मुझे भेजना भी है। काम का बोझ है। रात को मोटरकार चला नहीं पाऊंगा। मगर संपादक का निर्देश था कि घटना यूपी की है अतः प्रदेश ब्यूरो प्रमुख होने के नाते मुझे ही रिपोर्टिंग करना होगा। दूसरी वजह यह कि ग्यारह वर्ष पूर्व (सितंबर 1969) गुजरात के भीषण दंगों पर मेरी रपट बड़ी प्रशंसनीय मानी गई थी। मेरी हिचकिचाहट खत्म की मेरी पत्नी डॉ. के. सुधा राव ने। उन्होंने कहा कि चुनौतीभरी ड्यूटी है, अवश्य जाना चाहिए। मैं चल दिया अकेले। उस दौर में “टाइम्स आफ इंडिया” लखनऊ में छपता नहीं था। दिल्ली संस्करण ही वितरित होता था। मैंने पांच रातें मुरादाबाद के रेलवे रिटायरिंग रूप में गुजारी। शहर के होटल बंद थे। उसके बाद आया समाचार प्रेषण का संकट। उन दिनों प्रेस रपट तारघर से मोर्स कोड द्वारा भेजी जाती थी। आज की तरह नहीं कि बटन दबाया और पूरा समाचार चंद क्षणों में कंप्यूटर पर चला जाता है।

उन चार-पांच दिन मुरादाबाद में लगा कि मैं किसी जंग के मोर्चे पर हूं। मानो भारत-पाक सीमा जैसा। रोज अपनी रपट में लगभग हर प्रमुख मुरादाबादी से संपर्क कर मैं लिखता रहा। पूरी तरह यथार्थ पर आधारित। उसी समय मैंने पेट्रो-डालर का मुरादाबाद में प्रचलन का उल्लेख किया था। अचानक इस मुस्लिम बहुल नगर के जीर्णशीर्ण इबादतगाह कैसे भव्य मस्जिद बन गए। अत्याधुनिक हथियार दिखने लगे। कहां से आये? यहां के मुल्ले-मौलवी हज पर जाते थे। जिला कार्यालय से पिस्तौल आदि के परमिट बनवा लेते थे। सऊदी से खरीद कर लाते थे। अचानक अमीरी का कारण था कि सस्ते पीतल के बर्तन जो निर्यात होते थे ऊंचे दामों पर बिकते थे। अर्थात इन खाड़ी देशों से यूपी के मुसलमान विक्रेताओं को लंबा कमीशन लेकर बेचा जाता था। इस मोटी रकम का फायदा किसे होता था? स्पष्टतया चंद जमीनी हकीकतें दर्शाती हैं कि मुरादाबाद का दंगा सुनियोजित था। प्रायोजित था। तयशुदा लक्ष्य लिए।

एक संवाददाता होने के नाते मुझे नाज है यह कहते कि इस सक्सेना न्यायिक आयोग की जांच रपट के कई अंश जिनका जिक्र मैंने (तब 1980 अगस्त) किया था आज हूबहू सदृश हैं। समानार्थी हैं। उदाहरणार्थ आयोग ने माना कि ईदवाले दिन पुलिस अधिकारियों ने पूरी तरह सावधानी बरती थी। केवल आत्मरक्षा के लिए गोली चलाई गई। इस तथ्य के बावजूद दंगाइयों ने हिंदुओं व अधिकारियों और पुलिस बल पर अविवेकपूर्ण ढंग से हमला करके हथियार तथा गोली बारूद छीन कर उत्तेजना फैलाई। यदि पुलिस ने इस प्रकार की कार्यवाही न की होती तो शहर में पूर्णतया अव्यवस्था फैल जाती। जनजीवन और संपत्ति की कहीं अधिक क्षति होती।

परंतु इस प्रकरण के पूरे संदर्भ में एक खास मुद्दा जो असमंजस और अचरज जन्माता है वह यही कि गत चार दशकों से 15 मुख्यमंत्रियों ने इस रपट को सदन में पेश क्यों नहीं किया? इनमें तीन भाजपा के कद्दावर लोग (कल्याण सिंह, राम प्रकाश गुप्ता, राजनाथ सिंह) थे। चार कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने भी इसे दबाए रखा। माना कि मुलायम सिंह यादव उनके सुपुत्र ने उजागर नहीं किया क्योंकि मुसलमानों की दंगाईवाली छवि अधिक उभरकर आती। हालांकि इंदिरा गांधी ने तो उसी वक्त (अगस्त 1980) कहा था कि विदेशी (पाकिस्तान) हाथ है इन दंगों में।

फिर भी पत्रकार के नाते इस दंगे की रिपोर्टिंग में मुझ पर सबसे बड़ा लांछन कुछ मुस्लिम तंजीमों ने लगाया था। मुझ लोहियावादी को हिंदूवादी करार देकर इन इस्लामिस्टों ने 1980 में भारतीय प्रेस काउंसिल में मुकदमा दायर किया। न्यायमूर्ति अमरनाथ ग्रोवर इस प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष थे। मशहूर वकील राम जेठमलानी, पीलू मोदी, यूएनआई के महाप्रबंधक जीजी मीरचंदानी आदि सदस्य थे। इन्होंने मेरे विरुद्ध इस शिकायत को निर्मूल मानकर खारिज कर दिया। मेरी रिपोर्टिंग को सत्यतापूर्ण, तथ्याधारित और नैतिक पाया। मुझे गौरव दिया। मुझे गर्व है अपनी निष्पक्ष, तटस्थ पत्रकारिता पर।

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