--के• विक्रम राव,
अध्यक्ष - इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स।
आजादी के अमृत महोत्सव पर आज (11 नवम्बर) उनकी जयन्ती पर एक बांका योद्धा याद आया। वह त्रासदी का पर्याय था। शेक्सपियर के शोकान्तक नाटक के नायक के सदृश। उसने दो सदियां देखीं। उन्नीसवीं और बीसवीं। अपनी जन्मसती के ठीक सात साल पूर्व ही विदाई ले ली थी। पहले ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़ा। फिर जिन्ना से और अंत में इंदिरा गांधी के आपातकालीन सत्ता के विरुद्ध। अलबेला था। नाम था आचार्य जीवतराम भगवानदास कृपलानी।
ठीक स्वतंत्रता के वर्ष (1947) में राष्ट्रीय कांग्रेस के वे अध्यक्ष थे। बापू के साथ विभाजन की पुरजोर खिलाफत की थी। अपनी जन्मभूमि (सिंध) गवां दीं। इसके लिये जवाहरलाल नेहरु को उन्होंने कभी भी क्षमा नहीं किया। इस सिंधीभाषी सोशलिस्ट राष्ट्रनायक की बांग्लाभाषी कांग्रेसी पत्नी सुचेता (मजूमदार) कृपलानी उत्तर प्रदेश की चौथी तथा भारत की प्रथम महिला मुख्यमंत्री रहीं। संविधान निर्मात्री सभा की प्रथम बैठक पर वंदे मातरम् गाया था।
आज अपने छह दशक के छात्र तथा पत्रकारी जीवन में आचार्य कृपलानी से जुड़ी मेरी यादें ताजा हो गयीं। उनकी शरारत जानीमानी भी। कटाक्ष से सुहृद भले ही वे गवां देंगे, पर सटीक ताना मारने से कभी नहीं चूकेंगे। अर्थात उनके शत्रु बढ़ते गये। लेकिन तंज भी अविस्मरणीय रहा। काशी विद्यापीठ में एक सहककर्मी ने पूछा : ''दादा, क्या देखा था सुचेता भाभी में?'' दादा का जवाब था : ''जरा मेरी नजर से उसे देखो तो।'' तब तक वे साठ लांघ चुके थे। गाल पोपले हो गये थे।
एक बार हमारे लखनऊ विश्वविद्यालय दादा आये। हम समाजवादी युवक सभा के साथियों ने एपी सेन हाल में सभा रखी। इतनी भारी भीड़ की अपेक्षा नहीं थी। छात्र हाल में घुसने में जुटे रहे। उथल-पुथल देखकर दादा रुष्ट होकर बोले : ''माइक्रोफोन की आवाज बरामदे में भी सुनी जा सकती है। अगर शक्ल ही देखनी थी तो मुझसे भी किसी ज्यादा हसीन को बुलवा लेते।'' आचार्य कृपलानी हर कार्टूनिस्ट के लिये बड़े मनपसंद शक्ल थे। लम्बी, नुकीली नाक, झूलते कान, ठुड्डी से हड्डी झांकती और जुल्फे गरदन पर लहरातीं।
कृपलानी जी से रिपोर्टर के नाते मेरा निजी सामीप्य हुआ तीसरी लोकसभा के निर्वाचन (1962) के दौरान। तभी बम्बई टाइम्स आफ इंडिया के प्रथम प्रशिक्षण बैच में भर्ती हुआ था। दादा का मुकाबला नेहरु के प्रतिरक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन से था। यह बदनाम, बदगुमानी चीन-समर्थक तब उत्तर बम्बई की लोकसभाई सीट से प्रत्याशी था। खुद लापरवाही और बेहूदगी से लबरेज था। उसका अकड़पन जग जाहिर था। चुनावी अभियान की कांग्रेस-विरोधी फिजां में तय था कि दादा लोकसभा पहुंच जाते। पर तभी रक्षामंत्री ने सेना को गोवा मुक्ति हेतु रवाना कर दिया। गांधीवादी सत्याग्रह के सिद्धांत तज दिया वोट के खातिर। बम्बई में गोवा के उत्प्रवासी हजारों थे। सब प्रमुदित हो गये। मेनन जीत गये। मगर आठ माह बाद (अक्टूबर 1962) चीन के हमले और सीमा पर लज्जास्पद पराजय के बाद जनमत के दबाव में नेहरु को अपने रक्षामंत्री को बर्खास्त करना पड़ा। तब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री यशवंत चव्हाण नये रक्षामंत्री बने। कृपलानी के समर्थक मीनू मसानी तथा अन्य सोशलिस्टों ने विजय उत्सव आयोजित किया। तब रिपोर्टिंग पर मैं गया था। मसानी का प्रथम वाक्य था : ''दादा, आप उत्तर बम्बई का चुनाव जीत गये। मगर आठ माह बाद।'' मेनन तब संन्यास ले चुके थे।
कृपलानी जी की यादगार घटना थी 1963 में। उत्तर प्रदेश से लोकसभा के तीन उपचुनावों पर देश की नजर गड़ी थी। डा. राममनोहर लोहिया कन्नौज से जीते। दीनदयाल उपाध्याय जौनपुर से हार गये।
मगर कृपलानी का अमरोहा से उपचुनाव बड़ा जटिल और महत्वपूर्ण था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु तथा इंदिरा गांधी भी प्रयत्नशील थीं कि दादा लोकसभा न पहुंचे। भारतीय गणराज्य के संसदीय निर्वाचन इतिहास में यह अनूठा अध्याय था। कांग्रेस प्रत्याशी का चयन शीर्ष नेताओं ने किया था। हाफिज साहब का।
तभी एक विकराल हादसा (27 अप्रैल 1963) अमरोहा (मुरादाबाद) लोकसभा उपचुनाव के वक्त हुआ था। तब राहुल गांधी की दादी के पिताश्री प्रधानमंत्री थे। उनके संज्ञान में ही एक विधि-विरोधी, बल्कि जनद्रोही हरकत हुई थी। अप्रत्याशित, अनपेक्षित तथा अत्यन्त अवांछित थी। सत्तारूढ़ कांग्रेस के प्रत्याशी का नामांकन पत्र समय सीमा बीत जाने के बाद स्वीकारा गया था। कलक्ट्रेट (जिला निर्वाचन अधिकारी कार्यालय) के दीवार पर लगी घड़ी की सुइयों को पीछे घुमा दिया गया था। इस घटना की रपट दिल्ली के दैनिकों तथा मुम्बई की मीडिया, विशेषकर अंग्रेजी साप्ताहिक “करन्ट” (28-30 अप्रैल 1963) में प्रमुखता से छपी थी। शीर्षक के हिन्दी मायने थे कि ''कांग्रेसी उम्मीदवार के अवैध नामांकन पत्र को घड़ी की सुई घुमाकर वैध किया गया।''
दिल्ली में मेनन, तेलमंत्री केशवदेव मालवीय (बस्ती के) और स्वयं नेहरू ने तय किया कि सिंचाई मंत्री तथा राज्य सभा सदस्य हाफिज मुहम्मद इब्राहिम को लोकसभा के लिए अमरोहा से लड़ाया जाय। लगभग पचास प्रतिशत अमरोहा के मतदाता मुसलमान थे। अर्थात चोटी बनाम बोटी का नारा कारगर हुआ। अतः जिला कांग्रेस अध्यक्ष रामशरण का नामांकन वापस लेकर हाफिज मुहम्मद इब्राहिम का प्रस्ताव पेश हुआ। इसके लिए केन्द्रीय मंत्री केशवदेव और मालवीय जी दिल्ली से मोटरकार से मुरादाबाद कलक्ट्रेट पहुचे। यह सब अंतिम दिन (27 अप्रैल 1963) को हुआ। मगर दिल्ली से मुरादाबाद वे लोग शाम तक पहुचे। तब तक चार बज चुके थे। भीड़ जा चुकी थी। उस सन्नाटे में कलक्टर ने नामांकन को दर्ज कर लिया। चालाकी की कि घडी में दो बजा दिये और फोटो ले ली। विरोध हुआ पर उसे करने वाले विरोधी नेता केवल कुछ ही थे, बात बढ़ नहीं पायी। फिर भी कलेक्टर स्वतंत्र वीर सिंह जुनेजा ने बात दबा दी। मगर मतदान में हिन्दुओं ने जमकर वोट डाला। आचार्य कृपलानी जीत गये। हाफिज साहब का मंत्रीपद और राज्य सभा की मेम्बरी चली गई। आचार्य कृपलानी ने, लोहिया के आग्रह पर, नेहरू सरकार में अविश्वास का सर्व प्रथम प्रस्ताव लोकसभा में रखा। तब भारतीयों की दैनिक औसत आय तीन आने बनाम तेरह आने वाली मशहूर बहस चली थी।
आचार्य कृपलानी की अंतिम, अत्यधिक यादगार घटना थी आपातकाल के समय। जॉर्ज फर्नांडिस और मैं (अभियुक्त नम्बर-2) बड़ौदा डाइनामाइट केस में फांसी की सजा की प्रतीक्षा में थे। हम पच्चीस अभियुक्तों की रक्षा में एक समिति बनी थी। दादा कृपलानी अध्यक्ष बने। सीबी गुप्ता कोषाध्यक्ष। लोकनायक जयप्रकाश नारायण संरक्षक थे। वकील सभी प्रसिद्ध थे। राम जेडठमलानी, फाली नारीमन, सोली सोरबजी, अशोक देसाई, शांति भूषण इत्यादि। दादा कृपलानी की मांग पर मोरारजी काबीना ने हमारा मुकदमा वापस लेने का निर्णय कराया। तब अटल बिहारी बाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, एचएम पटेल, चौधरी चरण सिंह, जगजीवन राम, हेमवती नंदन बहुगुणा आदि की काबीना के समर्थन से भारत सरकार ने डायनामाइट केस निरस्त कर दिया। दादा कृपलानी के कारण हमारा नया जन्म हुआ। तो ऐसे आचार्य कृपलानी को उनकी जयंती पर हमारा नमन।
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