एनजीओ ! और कितने उपचार ?



--के• विक्रम राव,
अध्यक्ष - इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स।

एनजीओ (गैरसरकारी संस्थान) की जनसेवा पद्धति पर नजर तिरछी करते हुये एक बार फिर कल (9 नवम्बर 2021) सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फिक्र व्यक्त किया। आदेश दिया कि हर दान की राशि के व्यय करने का उद्देश्य बताना लाजिमी है। राजग सरकार द्वारा विदेशी वित्तीय चन्दे से संबंधी कानून के संशोधन-नियमों को कुछ एनजीओ ने चुनौती दी थी। उनकी याचिका पर अदालत में विचार हुआ। इस संदर्भ में मेरी एक निजी व्यथा का उल्लेख कर दूं। जब भी मैं सेवाग्राम (वार्धा), जहां मेरा बचपन गुजरा, तीर्थ करने जाता हूं तो पाता हूं कि इस नगर में एनजीओ की संख्या ज्यादा बढ़ गयी है। इन्होंने धनराशि पाने हेतु अपना पता बापू द्वारा पुनीत की गयी इस भूमि का ही दिया है। देश-दुनिया में गांधी जी (राष्ट्रपिता, न कि कांग्रेसी) का नाम खूब भुनाया जाता है। ऐसा क्यों हुआ कि इतने साल ​बीते मगर किसी भी सरकार ने इसकी परख करने या दुरुपयोग रोकने का प्रयास नहीं किया? सरकारी अमला भी लूट का बटाईदार हो गया है। क्या वजह है कि अधिकतर एनजीओ के मालिक अवकाशप्राप्त प्रशासकगण हैं। कई पुराने आईएएस अफसर अथवा उनके कुटुंबीजन!

भारत के 44वें प्रधान न्यायाधीश तथा प्रथम सिख न्यायमूर्ति सरदार जगदीश सिंह केहर ने 2017 में राजग सरकार को आदेश दिया था कि एनजीओ द्वारा राजकोष से प्राप्त राशि को नियमित करने हेतु कानून बने। तब तक नरेन्द्र मोदी खुले तौर पर कह चुके थे कि एनजीओ उनकी सरकार को उखाड़ने में जुटे रहते हैं। नतीजन 718 एनजीओ पर अपना सालाना हिसाब नहीं जमा करने के लिये प्राथमिक रपट दर्ज हुयी थी। उच्चतम न्यायालय के अनुसार 2016 तक इकतीस लाख एनजीओ पंजीकृत थे। इनमें उड़ीसा तथा तेलंगाना से सूचना नहीं मिली थी। सीबीआई के वकील पीके डे पहले ही उच्चतम न्यायालय को बता चुके थे कि छोटे प्रदेश असम के 97 हजार एनजीओ ने अपना लेखाजोखा कभी दर्ज ही नहीं कराया था।

यहां तीस्ता सीतलवाड के एनजीओ सबरंग का खास जिक्र हो। उस पर मद्य के मद पर दान की राशि खर्च करने का उल्लेख था। एमनेस्टी ने अपना कारोबार भारत में बंद कर दिया क्योंकि उसके करोड़ों रुपये का हिसाब त्रुटिपूर्ण पाया गया। गत वर्ष आशंका व्यक्त हुयी थी विदेशी वित्तीय मदद वाले संशोधन विधेयक से गरीब जन को हानि होगी। स्वराज अभियान के माननीय सदस्य प्रशांत भूषण ने इसकी आलोचना पर विरोध व्यक्त किया था। तब प्रधान न्यायाधीश तीरथ सिंह ठाकुर ने सवाल किया था कि केवल जनहित याचिका हेतु ही एक पृथक विशेष एनजीओ संस्था क्यों बने?

इन समस्त विदेशी मदद पर निर्भर एनजीओ पर एक घिनौना अभियोग भी लगा था कि वे विकास परियोजनाओं को अटकाने का प्रयास करते रहे। उदाहरणार्थ कुडनाकुलम (तमिलनाडु) की परमाणु योजना, नर्मदा पर सरदार पटेल योजना आदि। कुछ एनजीओ तो पड़ोसी एशियाई राष्ट्रों में नागवार सरकारों का तख्ता पलटने में क्रियाशील रहे। मलयाली पादरी वाईके पुन्नोस पर तो केनाडा की मदद से मतान्तरण को फैलाने का इलजाम था (हिन्दुस्तान टाइम्स, 26 मार्च 2016)।

सुधार हेतु कई सुझाव भी आये थे कि एनजीओ की जांच लोकपाल के तहत कर दी जाये, क्योंकि शासकीय तहकीकात की प्रक्रिया को क्षीण करने में लिप्त नौकरशाह ओवरटाइम कर देंगे। मगर लोकपाल वाला अभी भी अमूर्त प्रस्ताव ही है।

हालांकि घातक हादसा यह हुआ है कि इन एनजीओ की बेजा हरकतों के फलस्वरुप सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में दो से तीन प्रतिशत हानि हर साल हो जाती है। यूं जब भी भारत में विदेशी दान पर प्रतिबंध की चर्चा होती है तो अमेरिका तथा अरब राष्ट्रों में विरोध का हड़कम्प मच जाता है। भारतीय एनजीओ को अमेरिका द्वारा योगदान सालाना तीन खरब रुपया है। फ्रांस का न्यूनतम रहा डेढ अरब रुपये वर्ष 2013 में ही।

अत: निदान और उपचार क्या हो? नरेन्द्र मोदी को खौफ रहता है कि ''यह लोग (एनजीओ) षड़यंत्र करते है कि मोदी को कैसे खत्म करें। ''सुबह शाम मेरे खिलाफ तूफान चलता है। चन्द एनजीओ से हिसाब मांगा तो सब इक्टठा हो गये।'' अर्थात यह तो श्रमिक संघर्षवाली बात हो गयी जैसे : ''आवाज दो हम एक है।'' उससे भी बेहतर है : ''हमारी मांगें (जांच बंद की) पूरी हों, चाहे जो मजबूरी हो।'' वाह !!

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