जहां सारा काबीना ही कुटुंब हो!



--के• विक्रम राव,
अध्यक्ष - इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स।

सब खानदानी जन है। अत: इनके सारे गुनाह क्षम्य हैं। पड़ोसी कोलम्बो में गत सप्ताह हुयी सत्तासीन राजपक्षे परिवार की घटनाओं की चर्चा है। नेहरु-इंदिरा परिवार के निन्दकजन इस पर नजर डालें, तो वे भी शायद काफी नरम पड़ जायेंगे। उनकी तिरस्कार की प्रवृत्ति मंद पड़ जाये! श्रीलंका में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री और दो काबीना मंत्री एक ही माता-पिता की संतानें हैं। साथ में दो सगे भतीजे भी अब इस सरकारी जमात में अमात्य बन बैठे हैं। यह सब कोलम्बो में 8 जुलाई को घटी वारदातें हैं। जी हां, यदि इस उपहासजनक दृश्य का सांगेपांग बयान नैतिकता के पैमाने पर हो तो मंजर ज्यादा साफ होगा।

भारत की बात पहले। गत सदी के सात दशकों से मौजूदा शताब्दी के बीस बरस की कालावधि पर गौर करें। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के छह अध्यक्षों में रक्त संबंध रहा। मोतीलाल नेहरु, जवाहरलाल नेहरु, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी। पीढ़ी दर पीढ़ी में यही सब कुछ रहे। प्रधानमंत्री भी तीन हुये। सभी एक ही रक्त समूह वाले। मानों सवा अरब के भारत में कोई अन्य परिवार इतना काबिल मिला ही नहीं। शायद इसी नसल के लोग फिर प्रधानमंत्री बन जायें यदि अगले निर्वाचन में उनकी 135 वर्षों पुरानी कांग्रेस को वोट मिल जायें।

अब चले सागर पार कोलम्बो की ओर। एक सांसद थे डान एल्विन राजपक्षे। बौद्ध थे। उनका विशाल परिवार है। आजकल उनके पुत्र गोटबाया राष्ट्रपति हैं। अमेरिका से आईटी के निष्णात हैं। सैनिक अफसर के नाते दक्षिण श्रीलंका में तमिल विद्रोहियों (लिट्टे के प्रभाकरन) को उन्होंने मिटा दिया। सिविल युद्ध का खात्मा कराया। उनके भाई महिन्दा (महेन्द्र) अधुना प्रधानमंत्री हैं। वे राष्ट्रपति भी रहे। उनका छोटा भाई बेसिल राजपक्षे ने परसों वित्त मंत्री की शपथ ले ली क्योंकि श्रीलंका की वित्तीय स्थिति बड़ी शोचनीय हो गयी है। चीन द्वारा हम्बनटोटा बन्दरगाह का निर्माण हो रहा है जिस पर सवा अरब डालर खर्च कर चीन ने उसे अपने ही नियंत्रण वाला उपनिवेश बना दिया है। इस पर बढ़ते व्याज के कारण श्रीलंका की अर्थव्यवस्था गड़बड़ाई है। नये वित्त मंत्री बेसिल उस पर राष्ट्रीय स्वामित्व चाहेंगे। पर चीन कहा माननेवाला है? बेसिल के ताऊ कृषि मंत्री चमाल और चचेरे अनुज शशीन्द्र भी मंत्री हैं। महिन्दा के ज्येष्ठ पुत्र चमाल खेल मंत्री हैं। संप्रति परिवार के सात लोग काबीना के सदस्य हैं। अर्थात काबीना की बैठक राजपक्षे आवास में ही संभव है। कोरम भी कुटुंब में ही हो जायेगा।

हालांकि ऐसी वंशावलि वाला करतब जवाहरलाल नेहरु साठ साल पूर्व दिल्ली में दिखा चुके हैं। उनकी सरकार ने तब भारत के प्रधान न्यायाधीश पद पर न्यायमूर्ति सुधि रंजन दास को नियुक्त किया था। उनके दामाद अशोक कुमार सेन नेहरु काबीना के कानून मंत्री थे। इन अशोक जी के सगे अग्रज सकुमार सेन भारत के प्रथम मुख्य निर्वाचन आयुक्त थे। अर्थात शीर्ष के तीनों संवैधानिक पद एक परिवार में (1952) ही सीमित कर दिये गये थे। श्रीलंका में ऐसा हादसा तो गत सप्ताह ही हुआ।

महिन्दा राजपक्षे तथा उनके फौजी भाई गोटबाया का भारत सदैव आभारी रहेगा क्योंकि राजीव गांधी के हत्यारे लिट्टे नेता वी. प्रभाकरन का वध उनकी सेना ने करा दिया था। पूर्वोत्तर जाफना क्षेत्र में यह तमिलभाषी विद्रोही दशकों से जमे हुये थे। श्रीपेरांबदूर (चेन्नई के समीप) में चुनाव सभा में लिट्टे ने राजीव गांधी को विस्फोट में मार डाला था। उनके किरमिच के जूते से सोनिया ने विक्षत शव की शिनाख्त की थी।

तब तत्कालीन राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे ने कोलम्बो के अपने सरकारी प्रासाद में इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नालिस्टस (आई•एफ•डब्ल्यू•जे•) के प्रतिनिधि मंडल के सम्मान में स्वागत समारोह रखा था। तबतक लिट्टे का प्रकोप काफी बढ़ चुका था। आरोप यह तक था कि श्रीलंका शासन को आंतरिक रुप से कमजोर करने के उद्देश्य से इंदिरा गांधी ने तमिल विद्रोहियों को उत्तराखण्ड के जंगलों में शस्त्र प्रशिक्षण दिलवाया था। अंतत: इन्हीं माहिर विद्रोहियों ने उनके पुत्र को बम से उड़ा दिया।

राष्ट्रपति के इस जलसे में आई•एफ•डब्ल्यू•जे• राष्ट्रीय अध्यक्ष के नाते धन्यवाद में मैंने कहा था : ''शांतिप्रिय भारत किसी भी राष्ट्र में आंतरिक विप्लव का समर्थन कतई नहीं करेगा। यदि जाफना के तमिल विद्रोहियों के अलगाववादी संघर्ष को भारत उचित बतायेगा तो फिर हमारी क्या नैतिकता तथा औचित्य होंगे कि कश्मीर के पाकिस्तान-नवाज मुस्लिम आतंकियों की भर्त्सना भारत करे? विघटनकारी का विरोध होना ही चाहिये।'' प्रधानमंत्री राजपक्षे को मेरी उक्ति बहुत भायी। सिर हिलाकर भावना व्यक्त कर रहे थे। प्रत्येक सीमावर्ती राष्ट्र को इस सिद्धांत को मानना होगा यदि वे अपने देश में अमन चैन चाहते हैं तो।

आज यही त्रासदी भारत भुगत रहा है। पूर्वोत्तर, विशेषकर असम में, जहां बांग्लादेशी मुसलमान आज असमभाषी मुसलमानों के साथ मारकाट कर रहे हैं। मजहब गौण हो गया है। भाषा और अर्थतंत्र महत्वपूर्ण है। हाल ही के विधानसभा निर्वाचन में यही दिखा था। अत: अब तय हो जाये कि भारत की श्रीलंका नीति का निरुपण करना दिल्ली में भारत सरकार का दायित्व है, न कि तमिलनाडु के द्रविड मुन्नेत्र कषगम का। एम. करुणानिधि और जे. जयललिता सदैव लिट्टे के दबाव में केन्द्रीय सरकार को धौसियाते रहे। ऐसी हानिकारी हरकत राष्ट्रघाती हुयी। नतीजा सब ने देखा है।

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