---प्रदीप फुटेला, हल्द्वानी, 03 नवम्बर 2018, इंडिया इनसाइड न्यूज़।
महिलाएं समाज का एक बहुत महत्वपूर्ण व ज़रूरी हिस्सा हैं जिनके बिना समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पर क्या वास्तव में महिला को समाज का हिस्सा माना जाता है? महिलाओं ने शुरू से ही अपने अस्तित्व व अधिकारों को पाने के लिए बहुत सी लडाईयाँ लड़ी हैं, बहुत सी यातनाएँ झेली हैं। बहुत लम्बे समय के बाद महिलाओं को कानून का साथ मिला ओर पुरूषों के बराबर अधिकार मिले, लेकिन स्थिति आज भी बेहद गम्भीर है
हल्द्वानी में रहकर महिला अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाली पीहू पूनिया का कहना है कि महिलाएँ अपने अधिकारों का सही इस्तेमाल नहीं कर पाती। अदालत जाना तो दूर की बात है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि महिलाएँ खुद को इतना स्वतंत्र नहीं समझती कि इतना बड़ा कदम उठा सकें। जो किसी मजबूरी में (या साहस के चलते) अदालत जा भी पहुँचती हैं, उनके लिए कानून की पेचीदा गलियों में भटकना आसान नहीं होता। इसमें उन्हें किसी का सहारा या समर्थन भी नहीं मिलता है। इसके कारण उन्हें घर से लेकर बाहर तक विरोध के ऐसे बवंडर का सामना करना पड़ता है जिसका सामना अकेले करना उनके लिए कठिन हो जाता है। इस नकारात्मक वातावरण का सामना करने के बजाय वे अन्याय सहते रहना बेहतर समझती हैं। कानून होते हुए भी वे उसकी मदद नहीं ले पाती हैं।
आमतौर पर लोग आज भी औरतों को दोयम दर्जे का नागरिक ही मानते हैं। कारण चाहे सामाजिक रहे हों या आर्थिक, परिणाम हमारे सामने हैं। आज भी दहेज के लिए हमारे देश में हज़ारों लड़कियाँ जलाई जा रही हैं। रोज़ न जाने कितनी ही लड़कियों को यौन शोषण की शारीरिक और मानसिक यातना से गुज़ारना पड़ता है। कितनी ही महिलाएँ अपनी संपत्ति से बेदखल होकर दर-दर भटकने को मजबूर हैं। संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों के अलावा भी समय-समय पर महिलाओं की अस्मिता और मान-सम्मान की रक्षा के लिए कानून बनाए गए हैं, मगर क्या महिलाएँ अपने प्रति हो रहे अन्याय के खिलाफ न्यायालय के द्वार पर दस्तक दे पाती हैं?
साक्षरता और जागरूकता के अभाव में महिलाएँ अपने खिलाफ होने वाले अन्याय के विरुद्ध आवाज़ ही नहीं उठा पातीं। शायद यही सच भी है। भारत में साक्षर महिलाओं का प्रतिशत 54 के आसपास है और गाँवों में तो यह प्रतिशत और भी कम है। जो साक्षर हैं, वे जागरूक भी हों, यह भी कोई जरूरी नहीं है। पुराने संस्कारों में जकड़ी महिलाएँ अन्याय और अत्याचार को ही अपनी नियति मान लेती हैं और इसीलिए कानूनी मामलों में कम ही रुचि लेती हैं। हमारी न्यायिक प्रक्रिया इतनी जटिल, लंबी और खर्चीली है कि आम आदमी इससे बचना चाहता है। अगर कोई महिला हिम्मत करके कानूनी कार्रवाई के लिए आगे आती भी है, तो थोड़े ही दिनों में कानूनी प्रक्रिया की जटिलता के चलते उसका सारा उत्साह खत्म हो जाता है।
अगर तह में जाकर देखें तो इस समस्या के कारण हमारे सामाजिक ढाँचे में नजर आते हैं। महिलाएँ लोक-लाज के डर से अपने दैहिक शोषण के मामले कम ही दर्ज करवाती हैं। संपत्ति से जुड़े हुए मामलों में महिलाएँ भावनात्मक होकर सोचती हैं। वे अपने परिवार वालों के खिलाफ जाने से बचना चाहती हैं, इसीलिए अपने अधिकारों के लिए दावा नहीं करतीं। उन्हें इस अत्याचार, अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठानी होगी। साथ ही समाज को भी महिलाओं के प्रति अपने दृष्टिकोण में बदलाव लाना होगा। वे भी एक इंसान हैं और एक इंसान के साथ जैसा व्यवहार होना चाहिए वैसा ही उनके साथ भी किया जाए तो फिर शायद वे न्याय पूर्ण और सम्मान जनक जीवन जी सकेंगी। समाजसेवी पीहू पुनिया आज महिलाओं के लिए उम्मीद की किरण बनकर सामने आयी हैं वह पीड़ित महिलाओं की आवाज को शासन प्रशासन तक पहुंचाने में जुटी है इससे महिलाओं का मनोबल भी बढ़ा है तथा उनके अंदर अन्याय के खिलाफ लड़ने का जज़्बा भी पैदा हुआ है पीहू बताती है कि पहले महिलाएं आगे आने से डरती थी लेकिन अब वह खुद आगे बढ़ रही है तथा अपनी आवाज को उठा रही है महिलाओं में जागरूकता भी आई है पीहू ने बताया कि वह ऐसी कई महिलाओं की लड़ाई लड़ रही है जिन्हें उनके ससुराल पक्ष द्वारा प्रताड़ित किया गया था इसी तरह विधवा ,बेसहारा, महिलाओं को भी सहायता कर रही है जिससे वह भी आत्मनिर्भर होकर गुजर बसर कर सके।