सत्ता और सम्प्रदायवाद पर "बजरंग-बान" ! 



बजरंग भाई को वक्ता के तौर पर दूसरी बार सुन रहा था। पहली दफा पिछले साल विश्व पुस्तक मेले में और अब यानी कल यानी 21 सितंबर को जब वे अपने शहर लखनऊ में साझी दुनिया के एक कार्यक्रम में शामिल होने यहां आये। एक दिन पहले उन्होंने फोन पर बताया, "अरुन भाई ! कल लखनऊ में मिल रहा हूँ।" उनका यहां कैफी आजमी सभागार में "साम्प्रदायिकता:विभाजित होता राष्ट्र" पर व्याख्यान था। ऐसा पहली बार हुआ जब सिर्फ दो वक्ताओं को सुनना था- प्रो० शम्सुल इस्लाम को और प्रो0 बजरंग बिहारी तिवारी को। अन्यथा मंच को महामंच होते देखना और उबाऊ 'भाखन' सुनते-सुनते ऐसे कार्यक्रमों में ना आने की कसम खाने का मन करता है- बेसिर पैर की बातें।
पहले वक्ता प्रो0 इस्लाम ने कई ऐतिहासिक नजीरें दीं कि कैसे हिन्दू-मुस्लिम एक साथ मिलकर रहे हैं।अंग्रेजों से लोहा लिया।अंग्रेजों से प्रताड़ित हुए। उन्होंने रेखांकित किया कि देश में अमीर और गरीब के लिए अलग-अलग कानून हैं।उन्होंने ना सिर्फ संघ और सत्ता पर चोट की बल्कि मनुस्मृति में उल्लेखित स्त्री, दलित विरोधी होने के कई प्रमाण भी उद्धरण सहित प्रस्तुत किए। हालांकि प्रो0 शम्सुल का व्याख्यान अति तथ्यात्मकता के चलते लम्बा और कुछ बोझिल होकर रह गया। इससे वे बार-बार मूल विषय से भटक जा रहे थे फिर भी श्रोताओं के साथ उन्होंने काफी सूचनाएं बाँटी।
लगभग घंटे भर के अपने व्याख्यान में बजरंग भाई अपने बेहद नये और धारदार हथियार से लड़ते दिखे। यह हथियार था- तुलसीदास कृत रामचरित मानस।किसी पार्टी का नाम लिए बिना वे रस ले लेकर और विनोदपूर्ण ढ़ंग से सत्ता की खाल छीलते रहे, विच्छेदन करते रहे और वाहवाही लूटते रहे।अपनी चुटीली शैली में बजरंग कुछ कहते, ठहरते, मुस्कुराते और लोग ठहाके लगाते।
उन्होंने कहा कि साम्प्रदायिकता मनुष्य विरोधी होती है। उन्होंने ने यह भी कहा कि हमारे यहाँ सम्प्रदाय पहले से बनते चले आ रहे हैं।दो सौ वर्षों से। कबीर के समय से।उदाहरण के लिए राधा बल्लभ सम्प्रदाय से लेकर आज कई सम्प्रदाय हुये लेकिन आज का सम्प्रदायवाद बेहद घातक है।जिसे सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद कहकर प्रचारित किया जा रहा है, वह गिद्ध-मुखी राष्ट्रवाद है। गिद्ध यानि कि जिसकी नजर हमेशा लाशों पर ही होती है।
बजरंग अपने छात्र-जीवन से ही ऐसी वृत्तियों के विरोधी रहे हैं।हमारा उनका परिचय जेएनयू (1995-96 के आसपास) का रहा है। तब वे वहाँ पढ़ाई कर रहे थे और मैं पत्रकारिता। बाद में मेरा  दिल्ली छूट गया और वे पढ़ लिखकर वहीं देशवंधु कालेज में हिन्दी के प्राध्यापक हुए और साहित्यिक-क्षेत्र में स्थापित हो गये।फिर हम मिले पिछले साल 2016 में, दिल्ली पुस्तक मेले में। यानी लगभग बीस साल बाद।बजरंग भाई शायद मुझे तब पहचान नहीं पाये थे।मैंने ही चुहलबाजी की, उनको अपनापे की एक गाली-सी दी और हम हहाकर गले मिले।हम भले ही बड़ी देर से मिले थे, पर बड़ी देर तक गले मिले रहे।
हाँ, इसी साल 2016 में मेरी और उनकी मोबाइल के जरिये कथाकार शिवमूर्ति पर एक आलेख लिखने को लेकर वार्ताएं हुईँ, थोड़ी व्यस्तता की बात कहकर टालने की कोशिश के बावजूद उन्होंने मेरे लिए लिखा भी, पर दुर्भाग्यवश पत्रिका छापते वक्त वह अमूल्य आलेख रह ही गया।उसका ध्यान भी तब फिर आया जब बजरंग भाई ने पुनः याद दिलाया। मैं नालायक ! 
खैर, फिर आते हैं  "बजरंग-बान" पर जिससे बजरंग ने सत्ता और सम्प्रदायवाद को 'हनि-हनि' मारा।बजरंग बिहारी तिवारी, हिन्दी साहित्य का युवा आलोचक और खासकर दलित साहित्य का अध्येता; का निशाना है साम्प्रदायिकता यानि संघ और भाजपा; यानी केंद्रीय सत्ता यानि कि .....!
उनकी व्यंजना देखिए, "सत्ता हमेशा भयभीत रहती है। जैसे इंद्र का चरित्र है ना, ठीक वही चरित्र सत्ताधीशों का होता है, और वह सब आजकल दिख रहा है। वे लौटते हैं फिर रामचरित मानस की ओर- 
"सुर स्वारथी मलीन मन, कीन्ह कुमंत्र कुठाटु । रचि प्रपंच माया प्रबल, भय, भ्रम, अरति उचाटु।।" (—मानस, २। २९४ ) सुरों अर्थात देवों का चरित्र ना कितना श्वार्थी होता है कि वे अपना एजेंडा लागू करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं और आप सब देख ही रहे हैं कि कर ही रहे हैं।
"भय,भ्रम,अरति,उचाट" ये सत्ता का तो चरित्र ही होता है।अर्थात भय दिखाओ-राज करो, भ्रम फैलाओ-राज करो, लोगों के बीच अरति, माने प्रेम ना होने दो और उचाट पैदा करो यानि उद्विग्नता अथवा किसी भी तरह से समाज के मन में स्थिरता ना आने पाये।नोटबंदी किया। उसके बाद सभी ने देखा सबेरे कोई कानून, दोपहर को कोई और; शाम तक कुछ और; छब्बीस दिन, छियालीस कानून। कोई भी सुकून से न रहने पाये।आजकल यही हो रहा है। और जीएसटी देख ही रहे हैं।
और 'प्रपंच और माया' के क्या कहने हैं साहब? सबका साथ, सबका विकास। लो भई, हो तो रहा है सबका विकास।अडानी का, अम्बानी का और जाने किनका-किनका।
बजरंग अपनी बात को किसी सधे राजनीतिज्ञ की तरह अयोध्या की ओर मोड़ते हैं। सत्ता के चरित्र का एक और नमूना।देखिए ; 1992 के बाद से अयोध्या बेनूर हो गई, आभाहीन और विषण्ण।वहां देखिए, उदासी पसरी है, छावनी है, कटीले तार ही तार।बहुत लोगों को सबकुछ बहुत अच्छा-अच्छा हो तो भी अखरता है।जैसे तुलसीदास कह गये हैं,
"तिन्हहि सुहाव न अवध-बधावा।
चोरहिं चाँदनि रात न भावा।।" (उ0का0) 
चोर को चाँदनी रात अच्छी लगती है क्या ? 
उन्होंने जान मिल्टन के पैराडाइज लास्ट से लेकर शूद्रक के मृच्छकटिकम् तक से कई उदाहरण दिये और अंत में यह भी गुर दिये कि जनता ने तब क्या किया था और अब क्या करे!

बजरंग धीरे-धीरे अपनी बात उद्वेग रहित सुनाते रहे, हम सभी दत्तचित्त सुनते रहे।और अंत में कहा कि साधु निर्भय होता है, जो निर्भय होता है राजा के सामने खड़ा होकर अपनी बात अवश्य कहता है। लगभग घंटे भर अबाध और लगभग त्रुटिहीन, वे अपने व्याख्यान में पूरे सातत्य के साथ सधे रहे तथा दाद पाते रहे। कदाचित; यह ऐसा भी रहा हो कि आज वे 'लोगों के मन की बात' कह रहे थे।

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